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जन्मपत्रिका में राजयोग का महत्व

22/7/2018

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कई बार ग्रहों की स्थिति ऐसी होती है कि वह जातक को उत्तम फल दे जाती है. निम्नलिखित कुछ योग (केवल उदाहरणार्थ क्योंकि ऐसे योग तो बहुत हैं) व्यक्ति को वैभवशाली, राजा के सदृश अथवा राजा बनाने में सहायक होते हैं:

  • अश्विनी नक्षत्र में शुक्र लग्न में हो और तीन ग्रहों द्वारा देखा जाये, अथवा
  • लग्नेश बलवान हो कर पापरहित शुक्र के साथ द्वितीय स्थान में हो, अथवा
  • पत्रिका में चार या पाँच ग्रह दिग्बली हों (शनि को छोड़कर), अथवा
  • लग्न से चतुर्थ, सप्तम अथवा दशम में चन्द्रमा हो और पूर्णिमा का हो
  • चन्द्रमा और गुरु केंद्र में होकर शुक्र द्वारा देखे जाते हों
  • मंगल और बुध द्वितीय स्थान में हों

ऐसे ही योगों को प्राचीन ग्रंथकारों ने अलग कर लिया और उन्हें राजयोग का नाम दिया. राजयोग से तात्पर्य है ऐसा योग जो राजा बना दे अथवा राजा के सामान बना दे. अब राजा तो होते नहीं तो जहाँ तक हो सके, परिस्थिति के अनुसार बुद्धि लगाना ही उपयुक्त है. ऐसा भी कह सकते हैं कि राजा तो अब भी हैं परन्तु राज करने का प्रकार बदल गया है.

कितनी ही बार देखा गया है कि प्रश्नकर्ता की छाती यह जानकर गर्व से चौड़ी हो जाती है कि उनकी पत्रिका में राजयोग है. चूंकि लोग सुनना चाहते हैं अतः कुछ नए पुराने ज्योतिषी उनको लुभाने के लिए राजयोग रट लेते हैं जिनसे सुनने वाले को क्षणिक सुख तो मिलता है परन्तु कई बार यह योग ऐसे घटित नहीं होते जैसे होने चाहिए. इस लेख में राजयोग को ही समझने का प्रयास करेंगे.
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ध्यान देने पर पता चलता है कि अधिकांश राजयोगों में शुभ ग्रह के अस्त न होने पर, लग्नेश के बली होने पर, ग्रहों के केंद्र में होने पर, अधिक से अधिक ग्रहों के स्वराशि अथवा उच्चराशि में होने पर, चन्द्रमा के बली होने, अन्य ग्रह नीच न होने आदि योगों पर विशेष बल दिया गया है जो कि कोई भी ठीक ठाक ज्योतिषी साधारणतः पत्रिका देखते हुए भी करता ही है.

ऐसा अभिप्राय नहीं कि राजयोग के अध्याय का अध्ययन ही नहीं करना चाहिए. कुछ बहुत अच्छे योग भी मिलते हैं जैसे लग्नेश से तीसरे, छठे अथवा ग्यारहवें भाव में पापग्रह होने पर राजयोग घटित होता है. यह एक महत्त्वपूर्ण योग है.

राजयोग के अध्ययन से यह भी पता चलता है कि किस योग को प्राचीन ग्रंथकार कितना महत्त्व दिया करते थे और कैसे ज्योतिष की तपस्या करने वाले लोग यह बता दिया करते थे कि व्यक्ति राजकुल में जन्म लेकर भी राजभोग नहीं करेगा अथवा अधम वंश में जन्म ले कर भी राजा होगा. बुद्ध के विषय में तो उस समय के ज्योतिषी द्वारा की गयी भविष्यवाणी प्रसिद्ध है.

और ध्यान देने वाली बात यह है कि कुछ राजयोग ऐसे होते हैं जिनका फल तुलनात्मक होता है. उदाहरण के लिए राजा के परिवार में जन्म हुआ तो राजा और साधारण परिवार में हुआ तो वैभवशाली अथवा राजा के समान परन्तु आवश्यक नहीं कि राजा. जैसे कोई व्यक्ति पहले से ही धनी और प्रभावशाली परिवार में जन्म ले तो उसके लिए पत्रिका में दो या तीन ग्रह दिग्बली होना भी राजयोग है. उसको थोड़े से ही अधिक फल मिलता है.

जैसे देखने में आता है कि नेता के बेटे को नेता बनने के लिए अथवा उद्योगपति के बेटे को पिता का उत्तराधिकारी बनने के लिए संघर्ष थोड़ा कम करना पड़ता है. किसी कारणवश उत्तराधिकारी न भी बन सके तो ऐश्वर्य तो भोग ही लेते हैं और पिता के नाम का लाभ भी सहज ही मिलता है. ऐसे लोगों की पत्रिका में तो शुक्र को बृहस्पति का देखना अथवा बृहस्पति का लग्न में (मकर राशि छोड़कर) होना भर भी राजयोगकारक हो जाता है.

कुछ राजयोग राजा के समान वैभव दर्शाते हैं (राजा होना नहीं). जैसे पत्रिका में कोई ग्रह वक्री हो कर सुस्थान में बैठे तो राजा हो जाये यह आवश्यक नहीं परन्तु वैभव के समान होगा. हाँ, यदि ऐसे वक्री ग्रह अधिक हों तो उतना ही अधिक अच्छा फल कहते हैं. कहते तो ऐसा भी हैं कि वक्री ग्रह नीच का भी हो तो भी अच्छे फल देता है परन्तु यह अलग विषय है इस पर कभी और चर्चा करेंगे.  

कुछ राजयोग प्रबल होते हैं. ऐसे राजयोग में पैदा हुआ व्यक्ति चाहे कितने भी निर्धन परिवार में क्यों न जन्मा हो, वैभवशाली हो जाता है. ऐसे योगों में चन्द्रमा का विशेष महत्व देखने को मिलता है और वह भी पूर्णिमा का चन्द्रमा. पूर्णिमा का चन्द्रमा वर्गोत्तम में हो तो बहुत ही उत्तम राजयोग कहा है. वैसे भी चन्द्रमा अतिबली हो तो पत्रिका को बहुत सुधार देता है. चन्द्रमा पूर्णिमा का न हो और पक्ष बली तो भी बली ही समझा जाता है. ऐसे में यदि उसे शुभ ग्रहों का सहयोग मिले तो वह व्यक्ति को राजा बनाने की क्षमता रखता है.

उदाहरण के लिए - चन्द्रमा शुक्ल पक्ष का हो और उसे कोई ऐसा ग्रह देखे जो स्वराशि अथवा उच्च राशि में हो तो प्रबल राजयोग है. इसमें चन्द्रमा का कौन सी राशि में होना नहीं दिया गया है. एक अन्य राजयोग तब बनता है जब नवम में दोषरहित चन्द्रमा मित्र ग्रहों से युत अथवा वीक्षित (देखा जाता) हो तो उत्तम राजयोग है. ऐसी ही स्थिति में बुध, शुक्र एवं बृहस्पति भी उत्तम राजयोगकारक होते हैं.   

ज्योतिष के अधिकांश प्राचीन ग्रंथों की रचना संस्कृत के श्लोकों में हुई है अतः जैसे कविता को समझते हैं (कि कवि इन दो पंक्तियों में क्या कहना चाहता है) ऐसे ही कभी कभी (या कई बार) श्लोकों को भी समझना चाहिए. उन्होंने सूत्र बता दिया अब उसे कैसे समझना है यह विचार ज्योतिषी को करना है.

उदाहरण के लिए यदि किसी पत्रिका में सूर्य अपने नवांश में हो और चंद्र कर्क राशि में हो तो यह राजयोग है परन्तु क्या केवल इतने भर से यह राजयोग अपने उत्तम फल देगा. सूर्य शुक्र यदि लग्न से चौथे स्थान में बैठें तो यह राजयोग कहा गया है परन्तु इसमें क्या जोड़ना है इस पर कैसे विचार करना है यह तो ज्योतिषी को स्वयं ही तय करना होगा. अलग अलग ज्योतिषी अलग अलग प्रकार से तय करें तो कोई बड़ी बात नहीं परन्तु कोई कुछ तय ही न करे और राजयोग थोप दे तो अवश्य बड़ी बात है.

एक राजयोग देखिये - यदि पूर्णिमा का चन्द्रमा वृषभ राशि का होकर द्वितीय स्थान में बैठा हो, शनि-गुरु-शुक्र मीन राशि में बारहवें में बैठे हों और सूर्य मंगल से दृष्ट हो तो यह उत्तम श्रेणी का राजयोग बनता है. इसे समझने के लिए देखिये - चतुर्थेश द्वितीय में उच्च का, चतुर्थेश जिसकी राशि में है (अर्थात् द्वितीयेश) वो द्वादश में उच्चस्थ होकर नवमेश और द्वादशेश बृहस्पति तथा दशमेश और एकादशेश शनि से युति करते हुए उत्तम फलदायक होता है. धन और भोग ऐश्वर्य के कारक तो बली हैं ही साथ ही दुःखकारक शनि भी शुभयुक्त हुआ और यह सभी चन्द्रमा के लाभस्थान में आ गए. बलवान ग्रह लग्न के दोनों ओर आने से लग्न बली हुआ. सूर्य मंगल मित्र हैं और यहाँ मंगल लग्नेश है और सूर्य पंचमेश अतः लग्नेश का अपने मित्र पंचमेश को देखना भी शुभ हुआ. इस प्रकार ऊहापोह कर राजयोग को समझने का प्रयास करने चाहिए. यह नहीं भूलना चाहिए कि पत्रिका में कुछ और ऐसा तो नहीं है जो इसके शुभत्व को कम कर रहा हो.  

राजयोग को समझना चाहिए न कि केवल रट लेना. राजयोग कहीं बाहर से नहीं आये. वे भी ज्योतिष का ही भाग हैं. पत्रिका में तीन या पाँच ग्रहों का उच्च राशि में होना राजयोगकारक है परन्तु देखना चाहिए कि वह कहाँ स्थित हैं, कौन से स्थानों के स्वामी हैं और परस्पर मित्र हैं अथवा शत्रु. साथ ही चंद्र और सूर्य की पत्रिका में क्या स्थिति है. लग्नेश के बल को भी जाँचना चाहिए. तभी राजयोग का फल ठीक से ज्ञात हो सकेगा.

देखने में तो ऐसा भी आता है कि एक व्यक्ति की पत्रिका में तीन से अधिक राजयोग घटित होते हों तब भी वह अपना घर तक नहीं बना पाता. ऐसे में कारक को और चतुर्थ स्थान को देखना चाहिए. ऐसे समय दशा भी देखनी चाहिए. राजयोगकारक ग्रहों की दशा कब आ रही है. षड्बल अथवा दशबल का विचार करना चाहिए (यदि ठीक-ठीक जन्म समय ज्ञात हो तो). क्या पता जो बाहर से राजयोग दीखता हो वह भीतर से खोखला हो.

मेरे विचार से तो पूरी पत्रिका में ग्रहों की स्थिति का भली भांति अध्ययन कर के फलादेश करना ही श्रेष्ठ है.

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    Author - Archit
    लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः
    येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः
     I

    ​ज्योतिष सदा से ही मेरा प्रिय विषय रहा है. अपने अभी तक के जीवन में मुझे इस क्षेत्र से जुड़े बहुत से लोगों के विचार जानने का अवसर मिला. सौभाग्यवश ऐसे भी कई लोगों से मिला जिन्हें इस क्षेत्र में विश्वास ही नहीं था. फ्यूचरपॉइंट संस्था (दिल्ली) से भी बहुत कुछ सीखा और अपने पिताजी से तो अभी भी यदा कदा सीखते ही रहता हूँ. ज्योतिष अच्छा तो बहुत है परंतु इसमें भ्रांतियां भी उतनी ही फैली हुई हैं जिस कारण कभी कभी बड़ा दुःख होता है. नौकरी के चलते ज्योतिष में समय देना थोड़ा कठिन हो जाता है अतः ईश्वर की प्रेरणा से अपने विचारों को प्रकट करने के लिए और इनसे किसी का कुछ भी भला हो सके इसी हेतु लेख लिखा करता हूँ. 

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