जन्मपत्रिका में दो स्थानों को मारक स्थान माना गया है - दूसरा और सातवाँ. एक कुटुम्ब का स्थान है और दूसरा जीवनसाथी का. इन दोनों मारक स्थानों में भी दूसरा स्थान प्रबल मारक है. कदाचित् इसलिए कि वाणी, धन और आहार का विचार भी द्वितीय अर्थात् दूसरे स्थान से है. ज्योतिष में स्थानों का चुनाव बहुत ही सूक्ष्मता से किया गया जान पड़ता है. इस लेख में केवल दूसरे स्थान पर ही विचार करेंगे, सातवें स्थान पर फिर कभी. भक्तजन वाणी के मारक प्रभाव को समझते थे अतः एक नाम को ही रटने को कहते थे. एकनाथ ने कहा है, "हरि बोला हरि बोला नातरि अबोला, व्यर्थ गलबला करू नका". ज्ञानेश्वर ने कहा है, "हरि मुखे म्हणा हरि मुखे म्हणा, पुण्याची गणना कोण करि". हरि का नाम बोलते रहो. यह ना सोचो कि कितना पुण्य कमाया. बस नाम रटते चलो. अच्छा है कि ना बोलो. जब बोलो तो हरि का नाम लो. भक्त अपनी जिव्हा से अनुरोध करते हैं: जिव्हे सदैवं भज सुन्दराणि नामानि कृष्णस्य मनोहराणि। समस्त भक्तार्ति विनाशनानि गोविन्द दामोदर माधवेति॥ कोई व्यक्ति कैसा भी हो परन्तु उसे उचित शब्दों को उचित समय पर बोलना ना आता हो तो सब व्यर्थ है. उसकी अपनी ही वाणी उसे कलह देने वाली सिद्ध होती है. किसी को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप मन के कैसे हो. आप कब कैसा बोलते हो सब इस पर निर्भर करता है. इसलिए वाणी के स्थान को प्रबल मारक माना है. स्वयं बृहस्पति जो कि देवगुरु हैं और ज्ञान के कारक हैं, वे भी यदि असमय वचनों को कहें तो उन्हें भी बहुत अवज्ञा और अपमान मिलता है. अप्राप्तकालं वचनं बृहस्पतिरपि ब्रुवन्। लभते बह्ववज्ञानमपमानञ्च पुष्कलं॥ परिस्थिति के अनुसार शब्दों का चुनाव ना किया तो स्थिति मारक होने में कोई कसर नहीं रह जाती. बड़ी बड़ी लड़ाइयाँ कई बार कुछ अनुचित शब्दों के कारण जन्म लेती हैं. इस लेख में मारक होने का अर्थ यह नहीं कि व्यक्ति मर ही जायेगा परन्तु व्यक्ति कष्ट में अथवा क्लेश में रहेगा ऐसा भी समझना चाहिए क्योंकि ग्रहयोग से पता चलता है ग्रह कितना मारक होगा. कितने ही महापुरुषों के जीवन का अध्ययन करते हुए कभी कभी मन में यह विचार उठता है कि वे अपने कुटुम्ब से दूर क्यों हुए. कई तो परिवार होते हुए भी वैरागी की भाँति ही रहे. हो सकता है कि उनकी साधना के लिए, उनके अध्यात्मपथ पर आगे बढ़ने के लिए अथवा उनके जीवन के उद्देश्य को पूरा करने के लिए कहीं न कहीं कुटुम्ब घातक (या रुकावट पैदा करने वाला) सिद्ध होता. कई योगी महापुरुष अपने कुटुम्ब के साथ रहे परन्तु उनका कुटुम्ब उनके अध्यात्म या वैराग्य को स्वीकार करने वाला था. कुछ संत ऐसे थे जिनको कुटुम्ब में सम्मान नहीं था. घर के लोग भला बुरा कहते थे तो वे वन में जाकर ईश्वर का नामस्मरण किया करते थे. केवल आध्यात्मिक क्षेत्र में ही नहीं, अन्य क्षेत्रों में भी ऐसे कितने ही उदाहरण मिल जायेंगे जब अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए लोगों ने कुटुम्ब को त्याग दिया. उन्हें लगा कि कुटुम्ब उनके लक्ष्यप्राप्ति में रुकावट बनेगा. ऐसा नहीं कि सभी सफल हो गए. ऐसे महात्माओं का भी सुना है जो संन्यास लेने के उपरांत भी पुनः गृहस्थी को लौट गए. ऐसे लोगों का भी सुना है जो घर से भाग कर मुम्बई गए और मारक कष्टों से भयभीत होकर लौट आये. जिसकी पत्रिका में जैसे योग थे. कुटुम्ब से दूर रहना कोई सरल नहीं. भरापूरा कुटुम्ब भी इस संसार में एक बल ही तो है. ऐसा ही एक बल है धन का. धन अधिक हो तो व्यक्ति के लिए सम्मान तो जुटाता है परन्तु मारक भी सिद्ध हो सकता है. इसमें उदाहरण देने की आवश्यकता नहीं. और धन न हो तो फिर तो मरण है ही. शंकराचार्य ने कहा भी है कि जब तक धन कमाने योग्य हो, परिवार पूछ रहा है परन्तु जब यह देह जर्जर हो जाती है (अर्थात् धन कमाने योग्य नहीं रहती) तो कोई पूछने भी नहीं आता. धन हो तो मित्र, बन्धु सब दिखाई देते हैं परन्तु धन न हो तो अपने सगे भी अपने नहीं होते. एक जन्मपत्रिका में १२ भाव या स्थान होते हैं. इन बारहों स्थानों से जीवन की अनेकानेक बातों का विचार किया जाता है तो एक भाव से एक से अधिक विषय देखे जाते हैं परन्तु सूक्ष्म अध्ययन से पता चलता है कि यह विषय भले ही एक से अधिक दीख पड़ते हों परन्तु सब आपस में कहीं न कहीं जुड़े हैं. द्वितीय में ग्रहों के अशुभ स्थिति में होने पर कुछ फल देखिये - सूर्य के लिए कहते हैं कि बन्धुओं से कलह रहता है, अहंकारपूर्ण वाणी बोलता है, धन से हीन होता है अथवा त्यागी होता है. चन्द्रमा हो तो अटक अटक कर बोलने वाला, थोड़े कुटुम्ब वाला तथा निर्धन होता है. मङ्गल होने से व्यक्ति क्लेश करता है, दूसरों को तीखे तर्क देने में उसे सुख मिलता है, कुटुम्ब और धन का उसे सुख नहीं मिलता अथवा वह उसका सदुपयोग नहीं कर पाता. द्वितीय के बुध को शास्त्रों में बहुत अच्छा बताया गया है परन्तु बुध विनोदप्रिय है. बिगड़ा हुआ बुध व्यर्थ विनोद करता है. व्यर्थ अथवा असमय किसी की हँसी करना क्लेश को जन्म दे सकता है. द्वितीय में बृहस्पति दूषित होने से व्यक्ति अति बोलता है तथा अतिभोजन करता है. धनप्राप्ति उसे संघर्ष से होती है. समाज में प्रतिष्ठा नहीं होती. शुक्र को भी द्वितीय में बहुत अच्छा माना गया है परन्तु अशुभ हो तो व्यक्ति मदिरापान की ओर आकर्षित होता है. धन की हानि करता है, स्त्री से लड़ता है, कुटुम्ब के नाश का कारण बनता है और नेत्ररोगी होता है. शनि के दूसरे स्थान में होने पर कुटुम्ब के लोग उसे स्नेह नहीं करते, दूसरों के घर में रहना पड़ता है, मूर्खों की भाँति बहुत बोलता है अथवा सुनने वाले के कानों को कष्ट हो ऐसा बोलता है. लोग इसे अपने से दूर ही रखते हैं. इस प्रकार ग्रहों के फल थोड़े भी देखने से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि एक स्थान से सम्बंधित विषय कैसे आपस में जुड़े होते हैं. कोई कर्णकटु शब्द बोलेगा तो कोई उसे अपने पास क्यों रखेगा. कोई मूर्खतापूर्ण विनोद करेगा तो महत्त्वपूर्ण अवसरों पर लोग उससे बचने का ही प्रयास करेंगे. वाणी मधुर नहीं होगी तो धन कमाना कठिन होगा. सम्बन्ध बनाये रखना भी कठिन होगा. गुरु उसे विद्या नहीं सिखायेंगे. अतिभोजन कर अथवा व्यर्थ का खा-पीकर अपना शरीर खोयेगा. द्वितीय स्थान वास्तव में प्रबल मारक स्थान है. ध्यान देना चाहिए कि यह अशुभ स्थिति के फल हैं. ग्रहों के बलवान होने पर फल ऐसे नहीं मिलते. कई बार बड़े कुटुम्ब वाला धनी व्यक्ति अटक अटक कर बोलता है तो उसके लिए अन्य बातों का विचार करना चाहिए. कौन से तार कहाँ जुड़े हैं यह पता लगाना ज्योतिष में उपाय बताने के लिए अत्यन्त आवश्यक है अन्यथा उपाय चूक जाने की सम्भावना ही अधिक होती है. कहीं मैंने कृष्णमूर्ति की किसी पुस्तक में पढ़ा था कि समस्याएँ दीखती बहुत है, पर उनकी जड़ एक ही है. एक भी समस्या को पूरी तरह ठीक कर दिया तो सारी समस्याएँ ठीक हो जाती है. ज्योतिष भी कुछ ऐसा ही है. नौ ग्रह, बारह राशियाँ और बारह भाव - एक ज्योतिषी के पास इतना ही होता है परन्तु इतने में ही जीवन की समस्त गहराईयों का समावेश होता है. धन्य हैं वे जो इन गहराइयों में उतर पाते हैं. मुझ जैसे कितने ही लोग तो किनारे की लहरों से ही आगे नहीं बढ़ पाते. |
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November 2020
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Author - Archit
लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः I ज्योतिष सदा से ही मेरा प्रिय विषय रहा है. अपने अभी तक के जीवन में मुझे इस क्षेत्र से जुड़े बहुत से लोगों के विचार जानने का अवसर मिला. सौभाग्यवश ऐसे भी कई लोगों से मिला जिन्हें इस क्षेत्र में विश्वास ही नहीं था. फ्यूचरपॉइंट संस्था (दिल्ली) से भी बहुत कुछ सीखा और अपने पिताजी से तो अभी भी यदा कदा सीखते ही रहता हूँ. ज्योतिष अच्छा तो बहुत है परंतु इसमें भ्रांतियां भी उतनी ही फैली हुई हैं जिस कारण कभी कभी बड़ा दुःख होता है. नौकरी के चलते ज्योतिष में समय देना थोड़ा कठिन हो जाता है अतः ईश्वर की प्रेरणा से अपने विचारों को प्रकट करने के लिए और इनसे किसी का कुछ भी भला हो सके इसी हेतु लेख लिखा करता हूँ. |