इतना बड़ा घर इतना सब संग्रह क्या होगा इसका बच्चे तो पराये नगर को निकल गए इस सूनेपन को दूरदर्शन (टीवी) तो दूर न कर सकेगा सोचा था बुढ़ापे में सहारा बनेंगे कुछ अपनी कहेंगे कुछ हमारी सुनेंगे लेकिन वो भी क्या करें नौकरी कहाँ है अपने शहर में दूरभाष से दूरी कम तो हुई फिर भी दूरी है तो दूरी ही पर सही कहूँ तो बच्चे दोषी नहीं लगते उन्हें आगे मैंने ही तो बढ़ाया नौकरी में मैंने ही तो लगाया सोचा नौकरी करेंगे तो भविष्य सुरक्षित होगा समाज में सम्मान भी मिलेगा आज उन्हें अच्छे पद पर देखता हूँ तो सीना भी तो मेरा ही चौड़ा होता है मन को अच्छा लगता है कि चलो मेहनत सफल हुई वो घर आने को कहते हैं तो लगता है कि नहीं जहाँ आय के साधन हों रहो यहाँ आकर अपना भविष्य ख़राब न करो इतनी मेहनत से तुम्हें आगे बढ़ाया है तुम्हें कुछ हुआ तो तकलीफ़ हमें होगी हमारा क्या है हम तो अपना निभा ही लेंगे तुम्हें भी तो पाला है क्या खुद को न संभाल सकेंगे पर जब बच्चे छुट्टी पूरी कर वापस लौटने को होते हैं न चाहते हुए भी आँखें नम हो ही जाती हैं बस पता नहीं लगने देते उन्हें इस डर से कि कहीं वो रुक न जायें पर जो भी हो अंदर कहीं एक कोने से एक आवाज़ तो आती है बार बार सुनाती है कि काश! यह भी यहीं होते काश! यह भी यहीं होते |
Author- Architलाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II Archives
July 2020
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