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विद्यालयों के बढ़ते शुल्क (फीस) के पीछे किसका हाथ है?

16/7/2020

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आपने देखा होगा माता पिता प्रायः इस बात को ले कर बहुत चिन्तित रहते हैं कि उनके बच्चों की शिक्षा व्यवस्था कैसे करें. विद्यालयों द्वारा लिया जाने वाला शुल्क प्रतिवर्ष बढ़ता ही जाता है. कई बार तो दान (डोनेशन) भी देना पड़ता है. जहाँ "देना पड़े" वाली भावना आ जाये वो फिर कैसा दान. पर छोड़िये, दान पर चर्चा आज नहीं है. बात यह है कि आज के समाज में व्यक्ति को पेट काट कर अथवा ऋण लेकर शिक्षा जुटानी क्यों पड़ रही है.  

एक बार किसी ने मुझे कहा था कि सरकारों का ऐसे महत्त्वपूर्ण विषय पर कभी ध्यान नहीं जायेगा क्योंकि नेताओं का काला धन निजी विद्यालयों में लगा है. मुझे पता नहीं यह कितना सच है क्योंकि सड़क पर तो कोई कुछ भी बोलता है. परन्तु यह तो सच है कि कोरोना विषाणु के आगमन से विद्यालयों द्वारा लिया जाने वाले​ शुल्क के बोझ की अनुभूति लोगों को फिर एक बार होने लगी है. 
 
मैं तो यही कहूँगा कि इसके उत्तरदायी नेतागण तो हैं ही साथ ही साथ हम और हमारे माता पिता भी हैं. 

कैसे?
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अंग्रेजी के सिवा अन्य भाषा में भी कुञ्जीपटल होते हैं - एक उदाहरण
​भारत के संविधान के अनुसार हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भारत की राजभाषा (official language) हैं. सरकारी कार्यालयों में तो हिन्दी का प्रयोग होता रहा परन्तु समय के साथ निजी संस्थायें (private organizations) भारत में बढ़ने लगीं. इनमें से लगभग सभी अंग्रेजी में ही कार्य करती थीं तो जिसे अंग्रेजी नहीं आती उसे नौकरी नहीं मिलेगी ऐसा समझा जाने लगा. 

तो भाजपा ने या अन्य किसी समर्थ ने भी हिन्दी का पक्ष तो लिया परन्तु कभी निजी संस्थाओं में हिन्दी के प्रयोग की छूट नहीं दी. हुआ यह कि नौकरी पाने के लिए अंग्रेजी में अच्छा होना एक विवशता बन गयी. सोचिये आप जिस संस्था में काम करते हैं क्या उसमें हिन्दी का प्रयोग आधिकारिक तौर पर करते हैं? बोलचाल हिन्दी में होती है परन्तु दस्तावेज़ तो अधिकांश अंग्रेजी में ही रखे जाते हैं. 

देश में जो Computer (संगणक) क्रान्ति हुई उसके कारण अंग्रेजी और भी अधिक आवश्यक हो गयी क्योंकि भाजपा अथवा किसी और समर्थ ने Keyboard (कुञ्जीपटल) को हिन्दी में लाने का प्रयास नहीं किया. सदा से ही हमने अंग्रेजी कुञ्जीपटल देखे जबकि अन्य देशों में वह उनकी भाषाओं में होते हैं. छोटे छोटे देशों में भी कार्यालयों में अपनी भाषा के प्रयोग को महत्त्व दिया जाता है. 

कभी आपने दवाई के पत्ते देखे हों या बिस्कुट आदि के आवरण (cover) देखें हों तो उस पर भी अंग्रेजी में ही लिखा पायेंगे. अपनी माताजी के लिए जब हम चिकित्सालय में थे तो कई बार गाँव के वृद्ध लोग मुझसे पूछते थे कि दवाई के पत्ते पर अथवा बोतल पर क्या लिया है उन्हें बता दूँ. मेरे मन में आता था कि हिन्दी में भी यदि यह जानकारी उपलब्ध हो तो कितना अच्छा हो. 

भारत में सारे अंग्रेजी जानते हों या उन्हें जाननी ही चाहिए ऐसा कहना तो ठीक नहीं. किसी को केवल हिन्दी आती है तो क्या यह उसका दोष है. भारत में जन्मा है तो केवल हिन्दी आना कोई दोष तो नहीं.

तो ऐसे अनेक कारण थे जिससे अंग्रेजी जानना लोगों की विवशता बन गयी और आज भी बनती जा रही है. अब इस सबमें तो नेतागण अथवा समर्थजन दोषी हुए. इसमें हमारा क्या दोष?

हमारा दोष यह है कि हमने सरकारी शिक्षा संस्थानों की अनदेखी की. अपने बच्चों को निजी विद्यालयों में भेजा जो अधिकांश अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा देते हैं. इन विद्यालयों का शुल्क भी नहीं देखा. उलट यह समझा कि अधिक शुल्क देकर हम अपने बच्चों के लिए कितना कर रहे हैं. अपने अहंकार को संतुष्ट किया. गर्व से सीना चौड़ा हुआ कि बच्चा महँगी शिक्षा पाता है. 

परिणाम यह हुआ कि बहुत सस्ते में शिक्षा देने वाले सरकारी संस्थानों में केवल गरीब का बच्चा ही जाता था. सरकारी संस्थानों पर अच्छे प्रबन्ध के लिए दबाव डालने वाले शनैः शनैः कम होते चले गए और निजी संस्थानों के शुल्क आसमान छूने लगे. उस पर भी मज़ेदार बात यह कि निजी विद्यालयों में अपने बच्चे की भर्ती सुनिश्चित करने के लिए कई अभिभावकों (parents) को एड़ी चोटी का ज़ोर लगाना पड़ जाता है.

लोग प्रायः कहते हैं कि निजी विद्यालय (private schools) लूट रहे हैं. क्यों लूट पा रहे हैं? क्योंकि हम अपने बच्चों को अंग्रेज़ बनाना चाहते हैं. अंग्रेजी बोलने वाले को पढ़ा लिखा समझते हैं. ज्ञानी होना और अंग्रेजी बोलने वाला होने में फ़र्क है. यह समझना होगा. सरकार को भी चाहिए कि निजी संस्थानों में जिसे अंग्रेजी में काम करना है अंग्रेजी में करे, जिसे हिन्दी में काम करना है हिन्दी में करे. हिन्दी को लुप्त (eliminate) ही कर देना तो कोई ठीक बात नहीं.

राजभाषा तो हिन्दी भी है और अंग्रेजी भी. सम्मान दोनों का समान हो. 

​विशेष:
- मैंने इस लेख में भाजपा का नाम इसलिए लिया है क्योंकि भाजपा ही एक ऐसा बड़ा दल है जो हिन्दी का खुल कर समर्थन करता है. 
- लेख में कुछ शब्द अंग्रेजी के लिखे हैं क्योंकि कुछ लोग आजकल हिन्दी कम समझते हैं. भारत के लिए यह कोई अच्छा संकेत नहीं. 


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    Author- Archit 

    लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II

    Born in Bhind (M.P.), Schooling from Haridwar (U.K.), Engineering from Indore (M.P), worked in Punjab, Delhi and Mumbai (Maharashtra). I am a Bharatiya (Indian) who has traveled across the nation and now working in Chennai (T.N.). I like writing on anything I have learned/experienced related to religion, society, astrology, and corporate world. 
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