जब से संजीव इस नयी नौकरी में आया था, बड़ा परेशान था. उसका अधिकारी सुरजीत उसके साथ कुत्तों सरीखा व्यवहार करता था. कहीं पर भी उसे संजीव के मान सम्मान की चिंता नहीं थी. बात बात पर ताने सुन सुन कर संजीव बड़ा दुखी था परन्तु नौकरी नहीं छोड़ता था न ही अधिकारी को उसके व्यवहार के लिए कभी टोकता था. अब नौकरी छोड़ता भी कैसे? जिसे कुछ आता जाता न हो उसे नौकरी पर रखेगा कौन? इस कारखाने में उसे पचास हज़ार रुपया वेतन मिलता था. इस महंगाई के समय में यूं तो पचास हज़ार कोई बड़ी आय नहीं परन्तु जिसे कुछ आता जाता न हो उसके लिए तो यह बहुत बड़ी ही मानी जाएगी. कहीं भी नौकरी के लिए आवेदन देता तो पहले तो उसका वेतन ही राह का रोड़ा बन जाता और यदि कहीं बात साक्षात्कार तक पहुँचती तो ज्ञान के अभाव में बेचारा नौकरी पाते पाते रह जाता. अकेला था तो इस सबकी इतनी चिंता नहीं थी. कारखाने से निकलने पर चार दोस्तों के साथ शराब पी कर और फ़ालतू की बातचीत कर के मन हल्का कर लिया. शराबियों की सभा में साधारणतः सब लोग सबकी बातें सुनते हैं. समझने का वहाँ कोई काम नहीं होता. बोलना और सुनना, यही दो काम होते हैं. समझने की जल्दी किसे है. होश में आएंगे तो समझ लेंगे. मनुष्य हमेशा अपने मन की बात कहने के लिए किसी दुसरे को ढूंढ़ता है. कोई ऐसा जिसे वो सब कुछ बता सके और इस विश्वास के साथ कि वो बात कहीं बाहर नहीं जाएगी. विवाह के बाद संजीव ने अपनी पत्नी सुजाता में उस दुसरे को ढूंढना चाहा. सुजाता ने कुछ दिन तो सुना फिर या तो ध्यान नहीं देती अथवा उसे कुछ टेढ़ी बात बोल देती. एक दिन तो सुजाता ने उसे कायर और निर्लज्ज तक कह दिया. इतने पर भी संजीव ने अपने मन की बात उसे बताना बंद न किया. एक दिन सुजाता बोली, "कारखाने की बात कारखाने में ही छोड़ कर आया करो. मैंने तुमसे विवाह किया है, तुम्हारे कारखाने से नहीं". बात बात में बात बढ़ गयी. सुजाता के तीखे शब्दबाण सीधे संजीव के पौरुष पर चोट करते थे. कई दिन सहन करने के बाद उस दिन पहली बार संजीव ने सुजाता पर हाथ उठाया. उसके बाद तो लगभग प्रतिदिन ही संजीव ने अपने अधिकारी का रोष सुजाता पर उतारना शुरू कर दिया. ना सुजाता टेढ़ा बोलने से बाज आती थी, न संजीव उसे प्रताड़ित करने से. समाज में अगर आज हम देखें तो ऐसे बहुत से लोग हैं जो "आप हारे, बहू को मारे" वाली स्थिति में हैं. और यहाँ बहू तो एक प्रतीक है निर्बल व्यक्ति का. वास्तव में बहुत सी बहुएं अब इतनी निर्बल रही नहीं हैं और न ही इतनी सहनशील कि मार खाती रहें.
क्योंकि परिवार अब छोटे रह गए हैं तो व्यक्ति जाये कहाँ. पत्नी अथवा बच्चों पर ही गुस्सा निकलता है. मंदिर जाना तो और भी कठिन है. वहाँ तो ना जाने कितने लोग दर्शन पाने को लम्बी कतारें लगाए बैठे हैं. भगवान को देख पाना तक मुश्किल तो उसे मन की बात कोई कैसे कहे. घर के मंदिर में भगवान से बात क्यों नहीं हो सकती यह मेरी समझ से पर है. इस हताशा में कोई अपनी माँ को अपना क्रोध दिखा रहा है, कोई पत्नी को, कोई पति को, कोई बच्चों को, तो कोई छोटे भाई/बहन को. और आवश्यक नहीं कि यह पुरुष ही कर रहे हैं. बहुत सी महिलाएं भी हताश है. कई बच्चे जो अकारण ही पिटते हैं सम्भवतः उनकी माता हताश हैं. इसी स्थिति का नाम है, "आप हारे, बहू को मारे". |
Author- Architलाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II Archives
July 2020
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