रात के १२ बज रहे थे. यह सोने का समय था परन्तु मनोज की आँखों में नींद न थी. रह रह कर उसे अपने माता पिता का विचार आ रहा था. जब से नौकरी के फेर में पड़ा है पैसा तो मिल रहा है परन्तु माता पिता के सान्निध्य का सुख कहीं खो गया है. अपने शहर बनारस गए उसे कितना ही समय हो गया. कहने को तो दूरभाष (फ़ोन) पर बात जब चाहे हो जाती है परन्तु वो है तो दूर ही न.
|
Author- Architलाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II Archives
July 2020
Categories |