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धर्म / समाज पर विविध विचार

हनुमानजी की रावण से भेंट और लङ्का दहन

3/2/2019

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भगवान श्री राम, उनके भाई लक्ष्मण, माता सीता और हनुमान जी को नमस्कार करते हुए यह कविता कहता हूँ.
​हनुमान और मेघनाद करते संघर्ष महान्
पर कोई एक न हारता दोनों अति बलवान्
मेघनाद के ब्रह्मास्त्र का करने को सम्मान
बन्दी बने सहर्ष रावण सम्मुख पहुंचे हनुमान
 
देखे रावण पवनपुत्र को क्रोध में आँखें लाल किये
पर मन में सोचे कैसे इसने इतने राक्षस मार दिए
क्यों घुस आया यह लङ्का में, क्यों उत्पात मचाया है
क्या कोई पुराना वैरी है जो रूप बदल कर आया है
 
मन्त्री से बोला पूछो तो, है कौन यह इसका पता करो
क्या कारण ऐसे आने का, दूत यह किसका पता करो
तब प्रहस्त ने हनूमान को कहा कि जो सच बोलोगे
तो जाने देंगे तुम्हें सरल, वरना त्रास बड़े ही भोगोगे
 
प्रबल प्रतापी महापराक्रमी हनूमान क्या डरते थे
वे तो राक्षसराज से मिलने को ही उपद्रव करते थे
बोले कपि, प्रहस्त सुनो मैं कोई यम या कुबेर नहीं
और ना ही हूँ इन्द्र का सेवक, वानर हूँ मैं देव नहीं
 
यह न समझो हनूमान को बाँध लिया तुम लोगों ने
इतना भी सामर्थ्य नहीं है किसी में तीनों लोकों में
अस्त्र हो चाहे पाश हो कोई देव हो चाहे दानव हो
ब्रह्माजी से वरदान मिला है बन्धन मुझे असंभव हो
 
फिर देखा बजरंग बली ने राक्षसराज दशानन को
और लगे सन्देश सुनाने रावण के हितकारण को
राजा सुग्रीव वानरों के उनके आदेश से सब वानर
विदेहनन्दिनी सीता की खोज कर रहे इधर-उधर
 
जब बाली ने धर्म छोड़ औरों पर अत्याचार किया
श्रीरामचन्द्र ने एक बाण में बाली का संहार किया
तब किष्किन्धा के राजा हो सुग्रीव प्रतिज्ञाबद्ध हुए
सीता माता को ढूँढेंगे, श्री राम के प्रति कृतज्ञ हुए
 
फिरते हुए सुंदरी लङ्का में देखा है मैंने उन्हें दुःखित
लंकेश नहीं शोभा देता यह कार्य सर्वथा है अनुचित
तुम जैसे बड़े तपस्वी को बलशाली बुद्धिशाली को
क्यों जाना उस पथ पर जो सर्वदा धर्म से खाली हो
 
दास राम का हे रावण हनुमान यह तुमसे कहता है    
श्रीराम क्रोध में आये तो शत्रु जीवित नहीं रहता है 
अब भी सीता को छोड़ा तो प्राण बचा तुम पाओगे
अन्यथा सहायकों सहित उनके हाथों मारे जाओगे
 
रावण बोला बहुत हुआ इस वानर का ही अंत करो
उठो सेवकों इस राम दूत की मृत्यु का प्रबन्ध करो
उत्तेजित रावण को नीति विभीषण ने समझाई तब
मृत्युदण्ड को छोड़ रिपु ने पूँछ में आग लगाई तब
 
हनुमानजी ने तब अपनी आकृति विस्तारी
जलती पूँछ ही कितने असुरों को दे मारी
पुनः विचारा रामकार्य तो हुआ न पूरा
लङ्का को देखा है अभी आधा ही अधूरा
करने लङ्कानगरी का भली भाँति अनुमान
एक बार फिर बन्धन में चले बन्ध हनुमान
 
यह क्या हुआ परन्तु अग्नि की दाहकता कहाँ गयी
क्या कारण है अग्निप्रभावित वायु भी ना तपा रही
पिता पवन की शक्ति है या रामचन्द्र की भक्ति है
या कि पुण्या पतिव्रता सीता की कृपा हो सकती है
 
धन्य हूँ मैं जो सबने मुझ पर ऐसा उपकार किया
यह विचार कर हनुमान ने मन से नमस्कार किया
बहुत देख ली लङ्का अब कुछ थोड़ा उत्पात करें
बहुत हो गया बन्धन अब समय हुआ है घात करें
 
क्षणभर में ही मुक्त हुए तब जाने कितने असुर मारे
बड़े बड़े योद्धाओं के तो घर के घर ही जला डाले
त्राहि त्राहि मच गयी उधर हर कोई भागा फिरता था
पर हनूमान तो हनूमान थे उनका जी नहीं भरता था
 
विभीषण के घर का उन्होंने ध्यान रखा. उसे नहीं जलाया. किसी धर्मात्मा को हनुमानजी कैसे हानि होने देते.
 
जब देखा राक्षस रोते हैं, राक्षसियाँ पीटती हैं छाती
सब सुंदरता उजड़ गयी और लङ्का दग्ध हुई जाती
तब अतुलपराक्रमी हनूमान ने लिया एक ही नाम
मन ही मन में बोले जय श्री राम, जय जय श्री राम
 
पूँछ बुझाई सागर जल से सहसा एक विचार उठा
अग्निकांड में सीता का मुझको क्यों न विचार हुआ
यदि उन्हें हुआ कुछ तो कैसे राघव के सम्मुख जाऊँगा
मैं अवश्य इस महापाप का जग में दोषी कहलाऊँगा
 
फिर कहीं से किन्हीं चारणों ने सुन्दर समाचार दिया
कितना अचरज है देखो सकुशल से हैं वैदेही सिया
 
कुशल जानकी जान, हो गए मुदित हनुमान
थीं माता जिस स्थान, जा कर के किया प्रणाम 
 
बोले माता मन को बस कुछ दिन धीरज धरने दो
शीघ्र आयेंगे रामचन्द्रजी लंका पर जय करने को
वे चूर करेंगे रावण के बल का सब अभिमान
सीता को आश्वासन दे कर लौट चले हनुमान
 
जय श्री राम, जय जय श्री राम

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    Author - Archit

    लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II
    ​

    ज्योतिष के विषय से मैंने इस वेबसाइट पर लिखना शुरू किया था परंतु ज्योतिष, धर्म और समाज को अलग अलग कर के देख पाना बड़ा कठिन है. शनैः शनैः मेरी यह धारणा प्रबल होती जा रही है कि जो भी संसार में हो चुका है, हो रहा है अथवा होने वाला है वह सब ईश्वर के ही अधीन है अथवा पूर्वनियोजित है. लिखना तो मुझे बाल्यकाल से ही बहुत पसंद था परंतु कभी गंभीरता से नहीं लिया. कविताएं लिखी, कहानियां लिखी, निबंध लिखे परंतु शायद ही कभी प्रकाशन के लिए भेजा. मेरी कविताएं और निबंध (जिनका संकलन आज न जाने कहाँ हैं) जिसने भी देखे, प्रशंसा ही की. यह सब ईश्वर की कृपा ही थी. धार्मिक क्षेत्र में मेरी रुचि सदा से ही रही है परंतु पुत्र होने के बाद थोड़ा रुझान अधिक हुआ है. ना जाने कब ईश्वर ने प्रेरणा दी और मैंने इस पर लिखना शुरू कर दिया.

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