मैं एक कूड़ेदान हूँ तुम आते हो अपना कचरा मुझमें फ़ेंक कर चले जाते हो चाय, नमकीन, साबुन, मंजन माल उड़ा लेते तुम सब जन मुझको मिलती केवल लिपटन या फिर बचे हुए कोई व्यंजन एक बार अपना कचरा फेंका तो फिर मेरे पास रुकते भी नहीं मुझसे मेरी कुशल पूछते भी नहीं कभी दो पल मेरे पास भी तो बैठो अब मेरा भी वय बढ़ने लगा है जाने कब ढह जाऊँ तुम्हारे कूड़े का बोझ और न सह पाऊँ मुझे पता है, मुझे कभी कुछ हो गया तो मैं भी तुम्हारे लिए कचरा ही हो जाऊँगा फिर मैं तुम्हारे किस काम आऊँगा मेरे स्थान पर तुम कोई और कूड़ेदान ढूंढ लोगे नया, चकाचक पर मानव यह भूल जाता है कि जो जैसा बोता है वैसा ही पाता है तुम देखना जैसे तुम अपना भौतिक कूड़ा मुझमें डाल कर निकल लेते हो ऐसे ही लोग तुममें अपना मानसिक कूड़ा डालकर निकल लेंगे यह तो तुम्हारे मन की भड़ास है वही मानसिक कूड़ा है किसी के पास इसकी कमी नहीं इस मामले में सब धनी हैं सबके पास अपना अपना भण्डार है यह वैचारिक भण्डार किसी को सुनाने से ही हल्का होगा पर सुनने वाला मिलेगा कहाँ तुम दूसरे के पास अपनी सुनाने जाओगे दूसरा तुम्हारी सुनेगा ही नहीं वह अपनी ही सुनाएगा उसके पास जगह कहाँ होगी तुम्हारा कूड़ा समेटने की वो अपना मानसिक कूड़ा तुम पर उड़ेल कर निकल लेगा जैसे तुम निकल लेते हो अपना कूड़ा मुझमें उड़ेल कर तुम देखना, ऐसा ही होगा |
Author - Architलाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II Archives
November 2020
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