नागों के बिना हिन्दू धर्म की चर्चा अधूरी हैं. फिर चाहे वो समुद्र मंथन में वासुकि नाग का सहयोग हो, भगवान विष्णु का शेषनाग पर शयन करना, भगवान शिव का नागों को शरीर पर धारण करना हो या कुछ और. नागों में कुछ विशेष शक्ति तो है इसीलिए हिन्दू धर्म में इतने गहरे सम्मिलित हुए हैं. भगवान राम और लक्ष्मण भी यदि बंधे तो नागपाश से ही बंधे. कहते हैं कुंडलिनी भी सर्पाकार होती हैं. ज्योतिष में जो योग सबसे भयानक समझे जाते हैं उनमें से एक सर्पों से ही सम्बंधित है (कालसर्पयोग). महाभारत के आरम्भ में ही जनमेजय के महान सर्पसत्र की कथा है. जनमेजय राजा परीक्षित के पुत्र थे जिन्हें श्रृंगी ऋषि के श्राप के फलस्वरूप तक्षक नाग ने डस लिया था. जनमेजय को तक्षक पर रोष इसलिए था कि राजा परीक्षित के प्राणों की रक्षा के लिए जो ब्राह्मण उनके (राजा परीक्षित के) पास जा रहा था उसे उसे तक्षक ने परीक्षित के पास पहुँचने ही नहीं दिया. तक्षक की उस ब्राह्मण से मार्ग में ही भेंट हो गयी और तक्षक ने उस ब्राह्मण को वहीं से लौटा दिया. जितना अभिमान तक्षक को अपने विष पर था उससे अधिक विश्वास ब्राह्मण को अपनी विद्या पर था. अपने विष का प्रभाव दिखाते हुए तक्षक ने एक दंश में ही एक बड़े वृक्ष को भस्म कर दिया परन्तु ब्राह्मण ने उसे पुनः जीवित कर दिया. तक्षक ब्राह्मण के इस प्रभाव को देख ब्राह्मण से बोला - "आप क्यों परीक्षित के प्राण बचाना चाहते हैं?" "मुझे तो धन चाहिए, इसलिए जा रहा हूँ" - ब्राह्मण ने कहा "तो उतना धन मुझसे ले लो और वापस लौट जाओ" - तक्षक ने कहा ब्राह्मण ने स्वीकार कर लिया और लौट गया. जनमेजय का क्रोध इसी कारण था. तक्षक का क्या चला जाता यदि राजा परीक्षित को वह ब्राह्मण जीवित कर देता. ऋषि का श्राप भी पूरा हो जाता, तक्षक के विष का प्रभाव भी सब को दिख जाता और राजा परीक्षित भी जीवित रहते. ऐसा ही जनमेजय का सोचना था. इसी कारण जनमेजय ने महान सर्पसत्र यज्ञ का आयोजन किया जिसमें एक से एक भयंकर सर्प हवनकुंड की अग्नि में स्वाहा हो गए. एक समय पर तो नागराज वासुकि भी कठिनाई में आ गए. और जब एक एक कर सारे सर्प स्वाहा होने लगे तब उन्होंने आस्तीक को यज्ञ रुकवाने हेतु भेजा. यज्ञ के प्रभाव से भयभीत हो कर नागराज तक्षक ने इंद्र की शरण ली परंतु यज्ञ का प्रभाव इतना अधिक था कि तक्षक के साथ साथ इंद्र को भी अग्नि ने अपनी ओर खींचना आरम्भ कर दिया. ऐसे समय में इंद्र तो अलग हो गए और मूर्च्छित तक्षक जब यज्ञ की अग्नि में जाने ही वाला था तब आस्तीक के प्रभाव से और जनमेजय के द्वारा दिए गए वर से उसके प्राणों की रक्षा हुई. कहते हैं वह दिन श्रावण मास की पंचमी का था और उसी को नाग पंचमी के रूप में मनाया जाता है. गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित हिंदी महाभारत में तो कहीं भी इसे नागपंचमी से जोड़ा नहीं गया और अज्ञानवश संस्कृत महाभारत में मुझे कहीं नागपंचमी अथवा श्रावण मास की पंचमी कहीं नहीं मिला. यदि किसी विद्वान को ज्ञात हो तो बताने की कृपा करे. वैसे इसे नाग पंचमी के रूप में मनाना तर्कसंगत भी नहीं लगता क्योंकि यह तो मनुष्य की नागों पर विजय को दिखाता है और नाग पंचमी पर तो नागों की पूजा करी जाती है. हाँ इतना अवश्य है कि आस्तीक (जो कि नागराज वासुकि की बहन जरत्कारु का पुत्र था) के पुण्य प्रभाव से बचे हुए नागों की और तक्षक नाग की प्राणरक्षा हुई. परंतु उस आस्तीक के पिता तो मानव ही थे. अग्नि पुराण में संभवतः इसका उत्तर मिलता है: पंचमीव्रतकं वक्ष्ये आरोग्यस्वर्गमोक्षदं, नाभोनभस्याश्विने च कार्त्तिके शुक्लपक्षके ॥१॥ वासुकिस्तक्षकः पूज्य कालीयो मणिभद्रकः ऐरावतो धृतराष्ट्र कर्कोटक धनंजयौ ॥२॥ एते प्रयच्छन्त्यभयमायुर्विद्यायशः श्रियं ॥३॥ अग्नि महापुराण में अग्निदेव के मुख से वसिष्ठजी को ऊपरिलिखित यह उपदेश दिया गया है. अग्निदेव ने वसिष्ठ जी को पंचमीव्रत का माहात्म्य बताया है जिसका फल आरोग्य, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करने वाला है. श्रावण, भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक की शुक्ल पक्ष की पंचमी को वासुकि, तक्षक, कालिया, मणिभद्रक, ऐरावत, धृतराष्ट्र, कर्कोटक एवं धनञ्जय नामक सर्पों की पूजा करनी चाहिए. ऐसा करने से भय का नाश होता है, आयु बढ़ती है, विद्या, यश और लक्ष्मी प्राप्त होती है. परंतु यहाँ भी चार मास बताये गए हैं न कि केवल श्रावण मास. इसका अर्थ हो सकता है कि श्रावण, भाद्रपद, आश्विन और कार्त्तिक मासों की पंचमी तिथि नागपूजन के लिए श्रेष्ठ है. आगे इसी पुराण में आठ श्रेष्ठ नागों के नाम बताये हैं - शेष, वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्म, शंखपाल एवं कुलिक. यह नाम उन नामों से कुछ भिन्न हैं जो पंचमी व्रत में आराध्य बताये गए हैं. नवनागस्तोत्र में जो नाम बताये गए हैं वे भी कुछ मिलते जुलते ही हैं. "अनंतं वासुकिं शेषं पद्मनाभं च कम्बलं, शंखपालं धृतराष्ट्रं च तक्षकं कालियं तथा". यहाँ अनंत और शेष अलग अलग बताया गया है. सर्पसूक्त भी आरम्भ शेषनाग से होता है और अनंत नाग पर समाप्त होता है. कई लोगों का कहना है कि 'अनंत' शेषनाग का ही दूसरा नाम है. इस विषय पर कभी और चर्चा करेंगे. नागों को दूध क्यों पिलाया जाता है अग्नि पुराण में तो बहुत संक्षिप्त रूप से बताया गया है परंतु नारद पुराण में दरवाजे के दोनों ओर गोबर से सर्पों की आकृति बना कर उनकी पूजा करने को कहा गया है. साथ ही इन्द्राणी की भी पूजा कर के नैवद्य, धूप, दीप आदि से पूजन कर के ब्राह्मणों को दान देने का निर्देश दिया गया है परंतु नाग को दूध पिलाने का कहीं वर्णन नहीं मिलता. पूजा भी प्रतीक (गोबर से बने सर्प) की कही गयी है, जीवंत सर्प की नहीं. नाग दो प्रकार के कहे गए हैं - दिव्य और भौम. भौम नाग पृथ्वी पर रहते हैं और यदि शक्तिशाली भी हों तो भी दिव्य नागों जैसा प्रभाव नहीं रखते. दिव्य नाग जैसे शेषनाग, वासुकि, तक्षक आदि के लिए किसी को डसना आवश्यक नहीं. उनका तो फुफकारना अथवा मात्र दृष्टिपात करना ही किसी को भी भस्म कर देने के लिए पर्याप्त है. दिव्य नागों की ही पूजा की जाती हैं. किसी भी नाग को पकड़ के दूध पिलाने का चलन कहाँ से शुरू हुआ इस से मैं अनभिज्ञ हूँ.
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Author - Architलाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II Archives
November 2020
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