रंजन का मन में कुछ दिनों से बड़ी पीड़ा हो रही थी. बड़ी ही रहस्यमयी सी पीड़ा थी. भीतर कहीं दर्द होता था जो उसे बड़ी ही बेचैनी दे जाता था. रंजन यह भली भाँती समझता था कि यह कोई साधारण शारीरिक पीड़ा नहीं है. उसने कहीं सुना था कि पूजा पाठ करने वाले लोगों को कभी कभी कुछ विशेष प्रकार के अनुभव होते हैं. रात उसने अपनी पत्नी से इस पर चर्चा की तो पत्नी ने कहा यह कोई पूजा पाठ वाला दर्द नहीं हैं. शनिवार को किसी चिकित्सक का परामर्श ले लेते हैं. रंजन को यदि कोई काम सर्वाधिक अप्रिय था तो वो था चिकित्सकों के पास जाने का. इसलिए उसने अपनी पत्नी को जवाब दिया, 'मैं नहीं जाने वाला चिकित्सक के पास. इलाज तो इनके पास होता नहीं और मोटी रकम ऐंठने को बैठे रहते हैं. अब दिनेश चाचा को मधुमेह (डायबिटीज) का क्या इलाज बता दिया इन्होने?" रंजन की पत्नी ने क्लेश के भय से चुप्पी साधी और करवट बदल कर सोने का प्रयास करने लगी. रंजन को यह उपेक्षा कुछ रास न आई. किन्तु वो कर भी क्या सकता था. उसने टेलीविज़न खोला और कुछ निरर्थक किन्तु मनोरंजक सा देखने लगा.
रंजन ने अपनी इस समस्या के बारे में अपने माता पिता से भी चर्चा करी किन्तु परिणाम वही ढाक के तीन पात. रंजन ने बड़े उपाय किये किन्तु कोई निदान न हुआ. रात रात भर बेचारा मन शांत करने को शास्त्रीय संगीत सुनता था. जिसे कभी बड़ा ख्याल रास न आता था, वो अब आँखें बंद करके बड़ा ख्याल ही सुनता रहता था. पूजा पहले आधा घंटा करता था तो अब दो दो घंटे करने लगा. पूजा के बाद कुछ समय तो ठीक रहता था किन्तु फिर थोड़ी देर बाद वही. बेचैनी! करे तो क्या करे. यह रोग रंजन के समझ के परे था. कहीं उसने पढ़ा था कि घबराहट, बेचैनी के लिए होमियोपैथी में aconite नामक औषधि है. परन्तु या तो वह औषधि रंजन के लिए नहीं थी या वह भी रंजन के इस विचित्र रोग के आगे परास्त हो गयी थी. प्रवचन सुनने में भी उसे कोई विशेष आनंद ना आया. इस मानसिक रोग के कारण रंजन का सामाजिक जीवन बुरी तरह अस्तव्यस्त हो गया था. उसने सभी से संपर्क तोड़ लिया. कार्यालय में भी व्यवहार बिगड़ता ही जा रहा था. सभी लोग उसके चिड़चिड़े से व्यवहार से चकित थे. रंजन को अब कुछ करने का मन नहीं होता था. बस घर में पड़े रहो, बत्तियां बुझा दो और अंधकार में देखते रहो. इसी में उसे विशेष रस मिलता था . फिर एक दिन अनायास ही उसे अपने विचित्र रोग का उपाय मिल गया. उसके कार्यालय (ऑफिस) में उस दिन प्राणायाम सम्बन्धी चर्चा करने दो सज्जन पुरुष आये थे. उनमें से एक तो कुछ विशेष प्रभावशाली नहीं था, किन्तु दूसरे ने रंजन के मानसपटल पर एक विशेष छाप छोड़ी. यूं तो, प्राणायाम क्या है उसे पता था किन्तु उसने कभी उस ओर रुचि नहीं दिखाई थी. इस बार उसने निश्चय किया कि प्रातः चार बजे उठेगा और पूजा पाठ कर के उद्यान में नियमित प्राणायाम के लिए जाया करेगा. और उसने ऐसा किया. मन में लगन हो तो आलस्य छू भी नहीं सकता और रंजन को तो लगन के साथ बेचैनी भी थी. बेचैनी अच्छे अच्छों के आलस्य को मार देती है. पहले तो उद्यान जा कर प्रायाणाम करता और फिर प्रातः प्रसारित होने वाले बाबा रामदेव के कार्यक्रम को देख देख प्राणायाम करता. रंजन के रहस्यमयी रोग को अब प्राणायाम से टक्कर लेनी थी. दोनों पहुंचे हुए योद्धा थे, परन्तु रंजन के नियमित प्रयास ने प्राणायाम को विशेष बल प्रदान किया जिससे उस रहस्यमयी रोग का प्रभाव जाता रहा. कुछ सप्ताह बीत जाने पर रंजन के स्वभाव में आश्चर्यजनक परिवर्तन आने लगा. उसे क्रोध भी अब कम ही आता था. उसका भय भी कम होने लगा. वह भूल ही गया कि कभी उसे बेचैनी थी भी. साधारण सी बात पर चिढ जाने वाला रंजन अब सदा प्रफुल्लचित्त रहता है. क्या यह सब प्राणायाम से हुआ? कम से कम रंजन का तो यही मानना था. |
Author - Architलाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II Archives
November 2020
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