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धर्म / समाज पर विविध विचार

योगीनाथ भगवान दत्तात्रेय के २४ गुरु

26/11/2016

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जटाधरं पांडुरंगं शूलहस्तं कृपानिधिम् ।
सर्वरोगहरं देवं दत्तात्रेयमहं भजे ॥
​​
​जिनके कारण भगवान कृष्ण को यदुवंशी कहा जाता है उन महाराज यदु ने जब जंगल में अवधूत दत्तात्रेय को देखा तो आदरपूर्वक उन्हें प्रश्न किया कि बिना कोई कर्म किये वे इतने बुद्धिमान, गुणवान और रूपवान कैसे हैं? जब कर्म कर सकते हैं तो फिर कोई प्रयास करते क्यों नहीं? क्यों भटकते रहते हैं? 

दत्तात्रेयजी अत्रि ऋषि और सती अनुसूया के पुत्र थे. सुनते हैं उनमें ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनो का अंश समाहित था. शिव ने स्वयं उनको तंत्र विद्या का उपदेश दिया था जिसे दत्तात्रेय तंत्र के नाम से जानते हैं. यदु भी धर्मात्मा थे. दत्तात्रेय ने जब यदु का प्रश्न सुना तो उन्हें अपने २४ गुरुओं से पाई शिक्षा के विषय में बताया जिसको मैंने कविता के रूप में कहने का प्रयास किया है.
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Image Source: http://www.hindugodwallpaper.com/images/gods/zoom/1423_dattatreya-wallpaper-03.jpg
दत्तात्रेय जी महाराज यदु से बोले
जो भी जहाँ सिखाया जिसने उसको अंगीकार किया
ऐसे कुल चौबीस हुए, जिन्हें मैंने गुरु स्वीकार किया  
गुरुओं ने जो ज्ञान दिया है उसका आश्रय करता हूँ 
मैं स्वछंद विचरता हूँ

(1) - धरती
धरती ने सिखलाया मुझको सदा मन में धैर्य धरना
कोई अत्याचार करे, पर तू सब को क्षमा करना 
पृथिवी की इस शिक्षा को मैं मन में धारण करता हूँ
मैं स्वछंद विचरता हूँ 

(2) - प्राणवायु
प्राणवायु से मैंने संतुष्टि की शिक्षा पायी 
जितना मिल जाये उसमें संतोष करूँ मेरे भाई
आना जाना, खोना पाना, इस सब में नहीं पड़ता हूँ 
मैं स्वछंद विचरता हूँ 

(3) - जल
जिसके स्मरणमात्र से हो जाता है मन शीतल
पवित्रता स्वभाव है जिनका, मेरे गुरु हुए वह जल 
उनके निर्मल, पावन, शीतल गुण का साधन करता हूँ 
मैं स्वछंद विचरता हूँ

(4) - अग्नि/आग
​सभी अशुभ को भस्म करे जो, करे मनुज को निर्विकारी
अग्नि सदा सहायक सबकी पर उसका क्रोध बड़ा भारी
कभी प्रकट होता हूँ और कभी गुप्त मैं रहता हूँ
मैं स्वछंद विचरता हूँ

(5) - आकाश
​आत्मतत्व को कैसे भूले जो देखे आकाश
अनन्त
निराकार ही परम सत्य है, निराकार ही है अखण्ड​
परम अद्वैत आकाशरूप का भाव ह्रदय में भरता हूँ 
मैं स्वछंद विचरता हूँ 

(6) - चन्द्रमा 
चन्द्रमा का घटना बढ़ना जीवनचक्र दिखाता है 
कैसे मानव शरीर पाता, बढ़ता
है, मर जाता है
पर
सच में क्या चन्द्र घटा है, क्या मैं कभी मरता हूँ?
मैं स्वछंद विचरता हूँ

(7) - सूर्य
एक सूर्य है एक आत्मा, भेदभाव कहाँ कोई
पृथिवी के ही जल से, पृथिवी पर वर्षा होती 
कभी विषय का त्याग करूँ, कभी ग्रहण मैं करता हूँ
मैं स्वछंद विचरता हूँ 

(8) - कबूतर
क्या तुमने सुना प्रसंग उस मोह में
फँसे कबूतर का
जाल में
फँसा परिवार देख स्वयं भी फँसने​ जा पहुंचा 
कुटुंब मोह में
फँसे जनों की दशा देखता चलता हूँ  
मैं स्वछंद विचरता हूँ

(9)​ - अजगर
ईश्वर में विश्वास करो तो मेरे गुरु अजगर के समान
भोजन मिले न मिले क्या चिंता, समाधान इनमें महान
ईश्वर जो देना है देगा, नहीं प्रयत्न मैं करता हूँ 
मैं स्वछंद विचरता हूँ

(10) - समुद्र​
सागर से मैं पाता हूँ शांत चित्त, गंभीर स्वभाव
कोई दे जाये तो दे दे, ले जाने पर नहीं दुराव
ऐसे असीम, अपार समुद्र से ज्ञानार्जन करता हूँ 
मैं स्वछंद विचरता हूँ 

(11) - पतंगा
​लौ को देख पतंगे कैसे सुध-बुध खोते फिरते हैं
नारी के यौवन पर भी सब भूल के कामी गिरते हैं
​पतंगा पतन का मार्ग दिखाए, उसे स्मरण मैं रखता हूँ
मैं स्वछंद विचरता हूँ​

(12) - हाथी
नारी को नहीं बनाओ बस भोग-विलास का साथी
वर्ना फाँस लिए जाओगे जैसे फँस जाता हाथी
भोग रूप में नारी के दर्शन मैं नहीं करता हूँ 
मैं स्वछंद विचरता हूँ
(13)​ - भौंरा/भ्रमर
भौंरा अलग अलग फूलों से अपनी भूख मिटाता है 
छोटा बड़ा बिना सोचे वो सबकी शरण में जाता है 
छोटे बड़े कुटुम्बों से मैं छोटी बड़ी भिक्षा पाता हूँ 
मैं स्वछंद विचरता हूँ
                         या 
मधुमक्खी
जितना मिल जाये संन्यासी, खुश होकर ले जाये भिक्षा
कल की चिंता कभी करे न, मधुमक्खी देती यह शिक्षा
संग्रह कर कर मधुमक्खी सम, न जीवन दूभर करता हूँ
​मैं स्वछंद विचरता हूँ

​(14) - मधु निकालने वाला 
मधुमक्खी के संग्रह पर ज्यों औरों की दृष्टि रहती है
ऐसे ही औरों के संग्रह पर औरों की दृष्टि रहती है 
लोभी नहीं, कंजूस नहीं मैं, ना भण्डार मैं भरता हूँ 
मैं स्वछंद विचरता हूँ

(15) - हिरण 
संन्यासी को संगीत रसीला क्या करना मेरे भाई
विषयों के ही मोह से तो ऋष्यश्रृंग ने दुर्गति पाई
हिरण फंसे वैसे मैं मादक गीतों में नहीं फँसता हूँ 
मैं स्वछंद विचरता हूँ ​

(16) - जीभ (रसनेन्द्रिय)
जो मनुष्य वश में नहीं कर सकता अपनी रसना  
उसे तुम कांटे में फँसी मछली जैसा ही समझना
स्वाद-अस्वाद से ऊपर उठकर इन्द्रिय संयम करता हूँ
मैं स्वछंद विचरता हूँ​ 

(17) - पिङ्गला नाम की एक
वेश्या
पुरुषों को नित देह सुख दे धन की आशा करती थी
उस दिन लेकिन कोई ना आया, बाहर तक तक थकती थी

निराश पिङ्गला हुई वैरागी, मैं भी आशा तजता हूँ 
मैं स्वछंद विचरता हूँ

(18) - भृंगी (एक कीड़ा)
दुःख में, सुख में राग द्वेष में जिसका
चिन्तन​ करते हो
कालान्तर में मात्र उसी का रूप ग्रहण तुम करते हो
भृंगी से यह शिक्षा पाकर आत्मचिंतन करता हूँ 
मैं स्वछंद विचरता हूँ

(19) - कुरर पक्षी
चोंच में मांस दबाये पक्षी कुरर जब उड़ता जाता था

मण्डल​ भूखे बलवानों का उस पर दृष्टि गड़ाता था
मांस रखे तो प्राण गंवाए, (सोचे) संग्रह करूँ तो मरता हूँ 
मैं स्वछंद विचरता हूँ​

(20) - बालक
अपने में ही रमता हूँ मैं, अपने में खुश रहता हूँ 
कोई कभी मुझे कुछ कह दे, ना मैं मन में रखता हूँ
बालक जैसे
भावों से​ निर्दोष चित्त मैं रहता हूँ
​मैं स्वछंद विचरता हूँ

(21) - कुँवारी कन्या 
जितनी चूड़ी हाथ में होंगी उतनी आवाज़ें होंगी 
एक रहेगी नहीं बजेगी, शांति भंग नहीं होगी
किसी कुमारी की चूड़ी सा, सदा अकेला फिरता हूँ
मैं स्वछंद विचरता हूँ​

(22) - बाण बनानेवाला  
ध्यानमग्न हो वो मानव बस बाण बनाये जाता था
पास से चाहे राजा गुज़रे उसका ध्यान न पाता था
एक चित्त हो परमात्मा का नित्य स्मरण मैं करता हूँ
मैं स्वछंद विचरता हूँ 

(23) - सर्प 
संन्यासी क्या करे मंडली, मठ का और प्रमादों का
वो तो घूमे सदा अकेला, कहाँ स्थान है विवादों का
ज्यों सर्प कहीं पर नहीं ठहरता, स्थान बदलता रहता हूँ 
मैं स्वछंद विचरता हूँ​

(24) - मकड़ी 
अपने आप रचाते माया, अपने आप करे संहार
जैसे मकड़ी जाला बुन कर स्वयं बना लेती आहार
परमात्मा की माया है सब, कौन कहे मैं कर्त्ता हूँ
मैं स्वछंद विचरता हूँ ​

​​संसार में समय समय पर बहुत से योगी हुए परंतु भगवान दत्तात्रेय जैसे कोई योगी न हुआ होगा. भगवान कृष्ण से उद्धव ने जब संन्यास का उपदेश माँगा तो भगवान कृष्ण ने उन्हें महाराज यदु और अवधूत दत्तात्रेय जी का यही संवाद सुनाया था. भगवान कृष्ण ने कहा था कि इस उपदेश के प्रभाव से उनके पूर्वज महाराज यदु भी आसक्तियों से मुक्त हो गए थे. 

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    Author - Archit

    लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II
    ​

    ज्योतिष के विषय से मैंने इस वेबसाइट पर लिखना शुरू किया था परंतु ज्योतिष, धर्म और समाज को अलग अलग कर के देख पाना बड़ा कठिन है. शनैः शनैः मेरी यह धारणा प्रबल होती जा रही है कि जो भी संसार में हो चुका है, हो रहा है अथवा होने वाला है वह सब ईश्वर के ही अधीन है अथवा पूर्वनियोजित है. लिखना तो मुझे बाल्यकाल से ही बहुत पसंद था परंतु कभी गंभीरता से नहीं लिया. कविताएं लिखी, कहानियां लिखी, निबंध लिखे परंतु शायद ही कभी प्रकाशन के लिए भेजा. मेरी कविताएं और निबंध (जिनका संकलन आज न जाने कहाँ हैं) जिसने भी देखे, प्रशंसा ही की. यह सब ईश्वर की कृपा ही थी. धार्मिक क्षेत्र में मेरी रुचि सदा से ही रही है परंतु पुत्र होने के बाद थोड़ा रुझान अधिक हुआ है. ना जाने कब ईश्वर ने प्रेरणा दी और मैंने इस पर लिखना शुरू कर दिया.

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