निरंजना नदी के किनारे खड़े सिद्धार्थ गौतम को किसी युवती की आवाज़ सुनाई दी. वह बड़े ही मधुर स्वर में गा रही थी. क्या तेज था उसके चेहरे पर. क्या मधुर वाणी थी और सुंदरता ऐसी कि सिद्धार्थ ने उसे देखा तो देखते ही रह गए. उस युवती का नाम सुजाता था. इधर कितने ही समय से उन्होंने उपवास रखा था जिस कारण शरीर जर्जर हो गया था. दुर्बलता इतनी कि सीधे बैठने में भी कष्ट होता था. मांस तो मानो शरीर में कहीं बचा ही न हो. परन्तु सुना था भूखे रहने से ही ब्रह्मज्ञान मिलता है अतः कम से कम खाते थे. परन्तु पिछले छः वर्षों से ज्ञान प्राप्ति के सारे उपाय व्यर्थ ही जाते दीखते थे. गुरु भी बनाये परन्तु कहीं भी सत्य की खोज पूरी न हो सकी. एक गुरु तो स्वयं ही शिष्य बनने को तैयार हो गए. तिस पर भी ज्ञान जो चाहिए था नहीं मिला. सत्य क्या है, यह पता न चला. सुजाता को देखो. मस्ती में गीत गाती है. सुन्दर स्वस्थ शरीर है. सिद्धार्थ ने सोचा, 'आज यदि भगवान स्वर्ग के द्वार खोल दें तो वह उन दोनों में से किसे चुनेगा. उस सुन्दर नारी को अथवा मुझ दीन-हीन से दीखने वाले को'. और क्या गूढ़ अर्थ था उसके गाने का, "तार बराबर कसे हों तभी मधुर संगीत पैदा होगा". बात ठीक ही तो थी. बराबर स्वर निकलें इसके लिया तारों का सही सही कसा होना महत्त्वपूर्ण है. वाद्ययंत्र के तार न तो अधिक ढीले हों और न अधिक कसे हों. अभी वह इसी उधेड़बुन में लगे थे कि सुजाता ने उन्हें देख लिया. दुबले पतले शरीर वाले उस पुरुष को योगी महात्मा जानकर वह उन्हें खाने को खीर दे गयी. उन्होंने सुजाता की उस भेंट को स्वीकार कर लिया. सिद्धार्थ गौतम ने कई दिनों से भरपेट भोजन नहीं किया था. उसके जाते जाते बार बार वह यही विचार कर रहे थे कि तार बराबर कसे होने चाहिए तभी मधुर संगीत पैदा होगा. कैसे इतनी महत्त्वपूर्ण बात उनके मन में नहीं आयी. अब तक उन्होंने ज्ञानप्राप्ति के नाम पर अपने शरीर के साथ अत्याचार ही तो किये थे जिसके उन्हें दुष्परिणाम भी भुगतने पड़े. सांस रोकी तो सिर दर्द हुआ, भूखे रहे तो शरीर दुर्बल हुआ, आदि. सत्य है - अति सर्वत्र वर्जयेत् उन्होंने फिर अधिक विचार न किया. सुजाता की दी हुई खीर को बड़े प्रेम से खाया और पड़कर सो गए. किसी बात की चिंता न की. कहते हैं उस दिन के बाद से ही सिद्धार्थ गौतम ने भिक्षा मांगना आरम्भ किया था. दो समय की भिक्षा मांगते और अतिरिक्त समय में ध्यानमग्न हो जाते. जीवन अब कुछ बदला बदला सा लगता था. सत्य की खोज में जो यात्रा थी उसकी गति अब आश्चर्यजनक ढंग से बढ़ गयी थी परन्तु एक बात का क्षोभ अभी भी मन में था. परिवार को बिना बताये घर से भाग आने का क्षोभ. उनके एक दिन के बालक का क्या अपराध था. पिता भी अब बूढ़े हो चले होंगे. पत्नी क्या सोचती होगी आदि. एक दिन उन्हें लगा जैसे उन्हें कोई कह रहा हो, "परिवार को दुःख देकर तू यहाँ क्या करने आया है. ऐसा एकाकी जीवन भी कोई जीवन है. क्या उपयोग ऐसे जीवन का. जीवन आनंद लेने के लिए है ऐसे व्यर्थ करने लिए नहीं. वापस जा कर अपना राजपाट संभाल और परिवार के साथ आनंद उठा." सिद्धार्थ कुछ असमंजस में पड़ गए. फिर उन्होंने उस कहने वाले को (जो संभवतः उनका मन ही था) चीख कर कहा, "तुम मेरा भला नहीं चाहते. तुम अवश्य ही मेरे में पल रहा कोई पाप हो." उसके बाद उन्होंने अपने परिवार के बारे में उठ रहे विचारों को अपने पर हावी नहीं होने दिया. एक दिन पीपल के वृक्ष के नीचे बैठे हुए उन्हें लगा जैसे उन्हें कुछ विशिष्ट अनुभूति हुई हो. वह अनुभूति जिसके लिए उन्होंने सब कुछ छोड़ा था. ऐसी अनुभूति जिसे कोई शब्दों में क्या कह सकेगा. वह अवर्णनीय दिव्य क्षण था. यही वह क्षण था जब सिद्धार्थ गौतम से महात्मा बुद्ध का जन्म हुआ. कहते हैं उस स्थिति को प्राप्त करने के बाद बुद्ध सात दिनों तक कुछ बोल नहीं सके थे. मौन हो गए थे बस. ऐसे परमानन्द का वह अनुभव था. वह अब बुद्ध हो गए थे. बुद्ध - जिसे भूत, भविष्य, वर्त्तमान सभी का ज्ञान हो चुका था. अपने पिछले जन्मों का सभी वृत्तांत उन्हें पता लग गया था. ब्रह्माण्ड का कोई भी रहस्य अब उनसे न छिपा था. जिस स्थिति को प्राप्त करने के लिए लोग जन्मों तप करते हैं वह उन्हें जीवन के ३५ वर्ष बीत जाने पर प्राप्त हुआ. परन्तु ऐसा नहीं कि बुद्ध होने पर वे अपने घर नहीं गए. घर पहुंचे तो पिता के क्रोध का पारा सांतवे आसमान पर था. पत्नी के मन में भी कुछ ज्वलंत प्रश्न थे. पुत्र इतना बड़ा तो हो गया था कि पिता को पहचान सके. पिता (शुद्धोधन) और पत्नी (यशोधरा) दोनों ने महसूस किया कि सिद्धार्थ (बुद्ध) अब पहले जैसे नहीं रहे. कुछ दिव्य परिवर्तन तो हुआ है. ऐसा तेजस्वी मुखमण्डल तो सिद्धार्थ का कभी न था. यशोधरा ने पूछा, "हमें बिना बताये क्यों चले गए थे" महात्मा बुद्ध तटस्थ भाव से बोले, "मुझे भय था यदि बताता तो तुम मुझे जाने नहीं देती. मेरे मन में यही विचार था कि कहीं पिताजी अथवा तुम्हें पता चल गया तो तुम मुझे जाने से रोक न लो". यशोधरा ने कहा, "आपको कैसे लगा कि मैं आपको रोक लेती. और यदि मैं रोक भी लेती तो जो ज्ञान आपको वहाँ वन में जाकर प्राप्त हुआ क्या वह यहाँ नहीं प्राप्त हो सकता था. क्या आपकी साधना महल में रहकर नहीं हो सकती थी." महात्मा बुद्ध ने उत्तर दिया, "यशोधरा, आज मैं तुम्हारे इस प्रश्न को सुनता हूँ तो मैं कह सकता हूँ कि तुम ठीक कह रही हो परन्तु यही प्रश्न तुमने मुझसे उस समय किया होता तो कदाचित् मेरा यह उत्तर न होता. तुम्हीं कहो, मुझे उस समय बताने वाला कौन था कि ज्ञान प्राप्ति कैसे होती है. मेरी मनोदशा को उस समय मेरे अतिरिक्त और कौन समझ सकता था. बालपन से मैंने वही देखा जो पिताजी ने दिखाया. उस समय मुझे नहीं पता था कि ज्ञान का भंडार तो मनुष्य के भीतर समाया हुआ है. उसके कहीं और ढूंढने जाने की आवश्यकता ही नहीं. किन्तु हाँ, आज तुम्हारी बात ठीक लगती है". तदनन्तर बुद्ध ने अपने पिता, पत्नी और बेटा, तीनों को आत्मसाक्षात्कार का अनुभव कराया और उन्हें भी अपने साथ अपने शिष्यों के बीच ले गए. महात्मा बुद्ध के जीवन प्रसंगों को अलग अलग लोगों द्वारा अलग अलग ढंग से कहा सुना जाता रहा है. इस कहानी को प्रेरक प्रसंग की भांति ही समझने की कृपा करें, ऐतिहासिक तथ्य की भांति नहीं. |
Author - Architलाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II Archives
November 2020
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