श्रवण ने राजगोपाल से अष्टावक्र गीता का छठा प्रकरण कहने को कहा तो राजगोपाल बोला, "अष्टावक्रजी ने कहा कि जैसे आकाश अनंत है, ऐसे ही मैं भी अनंत हूँ, परंतु यह जगत तो एक घड़े की तरह है". श्रवण बोला, "आश्चर्य है! मैं अनंत हूँ परंतु यह जगत एक घड़े की तरह है. यह कैसे?" राजगोपाल बोला, "भाई, आत्मा तो अनंत है. उपनिषदों में भी यही कहा गया है. कहने को आत्मा इस शरीर में वास करती है परंतु है तो वह उस अनंत का हिस्सा ही. और अनंत का हिस्सा है अतः वह भी अनंत है परंतु भगवान की माया इतनी प्रबल है कि बार बार स्वयं को शरीर और जगत के प्रपंचों में उलझा देती है. परमात्मा अनंत है परंतु जब तक तुम स्वयं को उससे अलग रखोगे तब तक कैसे तुम अनंत हो सकते हो. जैसे ही स्वयं को अनंत माना वैसे ही अनंत हो गए". श्रवण के चेहरे पर असमंजस के भाव आये परंतु प्रत्यक्ष में कुछ बोला नहीं. श्रवण के भावों को समझकर राजगोपाल बोला, "श्रवण, प्रह्लाद का चरित्र इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है. तुमने सुना ही होगा भक्तराज प्रह्लाद को उसके पिता ने अनेकों प्रकार से मारने का प्रयास किया परंतु सफल न हुआ. हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र से पूछा कि उसके इस अतुलनीय प्रभाव का कारण क्या है? हर बार वह अपने प्राण कैसे बचा कर ले जाता है? क्या वो कोई मंत्र जानता है या जन्म से ही उसे कोई सिद्धि प्राप्त है. पिताजी ने ऐसा पूछा तो प्रह्लाद ने जो उत्तर दिया वो इस प्रकार है - न मंत्रादिकृतं तात न च नैसर्गिको मम। प्रभाव एष सामान्यो यस्य यस्याच्युतो हृदि॥ प्रह्लाद बोले कि यह न तो मन्त्रों के प्रभाव है न तो कोई नैसर्गिक (जन्म से प्राप्त हुए) प्रभाव ही है. यदि किसी के हृदय में अच्युत (भगवान विष्णु) बसे हों तो यह तो बड़ी ही सामान्य बात है. गीता में भगवान कृष्ण ने भी यही कहा है. तुम अपने को मुझे सौंप दो, तुम्हारी रक्षा के लिए मैं हूँ परंतु सही कहूँ श्रवण, मन बड़ा ही चंचल है. ऐसा करना मुझसे तो अब भी नहीं हो पाता. ऊपर ऊपर से कहने से कुछ नहीं होता". श्रवण को राजगोपाल की यही बात अच्छी लगती थी. राजगोपाल झूठ से अपने को महान नहीं बताता था. यदि कुछ नहीं है तो नहीं है. फिर उसमें कोई छुपाव नहीं. राजगोपाल आगे बोला, "जब किसी प्रकार भी प्रह्लाद ने नारायण भक्ति न छोड़ी तो हिरण्यकशिपु ने उसे नागपाश में बंधवाकर समुद्र में डलवा दिया. इतना ही नहीं उसने दैत्य सैनिकों से कह कर प्रह्लाद को पर्वतों से दबवा दिया ताकि वह हिल भी न सके. ऐसे समय प्रह्लाद ने भगवान की ऐसी स्तुति की कि भूल ही गए कि वह प्रह्लाद हैं. कोई प्रह्लाद रह ही नहीं गया. कोई रह गया तो केवल विष्णु भगवान का स्मरण. जब प्रह्लाद रह ही नहीं गया तो विष्णु ही रह गए. उस समय विष्णु के साथ एकरूप होने के कारण वह अनन्तशक्तिसम्पन्न हो गए जिसके फलस्वरूप बड़ी ही सरलता से सारे बंधनों को तोड़ते हुए और पर्वतों को अपने ऊपर से हटाते हुए वे समुद्र से बाहर निकल आये. यही बात अष्टावक्र कह रहे हैं. मैं आकाश रूप हूँ और जगत घड़े के समान है. यही कारण है कि अष्टावक्र कहते हैं कि सारा जगत मैं हूँ और सारा जगत मुझमें है. क्योंकि मैं तो अनंत हूँ. जिसने ऐसा समझ लिया उसके लिए क्या त्याग और क्या लय. बस एकरूपता है. और कुछ नहीं". श्रवण को अब कुछ कुछ समझ आने लगा था परंतु वह बस चुपचाप बैठा राजगोपाल को देखता रहा जिसने उसे अष्टावक्र गीता का छठा प्रकरण इतने सुन्दर तरीके से उसे समझाया था. |
Author - Architलाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II Archives
November 2020
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