राजगोपाल बोला, "चौथे प्रकरण पर कुछ कहूँ उस से पहले मुझे एक बात का स्मरण हो आया. ज्योतिष में और हस्तरेखा शास्त्र में भी संन्यासी को सब ग्रहों से ऊपर माना है. कहते हैं ग्रहों का संन्यासी पर कोई प्रभाव नहीं होता". श्रवण मुस्कुराते हुए बोला, "उचित भी है मित्र! जिसे सुख दुःख एक समान प्रतीत हों उसे भला ग्रहों की चाल क्या हानि अथवा लाभ करा सकती है. यदि कोई पाप पुण्य के प्रपंच में पड़ा हो तो भी संभावना है कि उसे गृह प्रभावित करेंगे परंतु अष्टावक्र द्वारा बताये गए ज्ञानी को तो पाप पुण्य से भी सरोकार नहीं है. तो फिर उसके लिए तो राहु की, शनि की, मंगल और गुरु आदि की दशा एक समान हैं. जिसने सांसारिकता का पूर्ण रूप से परित्याग ही कर दिया उसे किसी बात में सफलता अथवा असफलता से क्या प्रयोजन". "तुमने ठीक ही कहा श्रवण. रामचरितमानस में भी तुमने पढ़ा ही होगा तुलसीदास ने कई बार भगवान राम के सम्बन्ध में कहा है कि अमुक समय उनके मन में न हर्ष था न विषाद. उन्होंने सीधे सीधे नहीं कहा परंतु परमात्मा का स्वभाव कैसा है इसका संकेत भर दे दिया. परंतु अष्टावक्र सीधे सीधे बात कर रहे है. उन्होंने कोई बात घुमा कर नहीं कही. उन्होंने कहा कि जिस परम पद को सभी देवता दीन की भांति पाना चाहते हैं, उस पद को भी यदि योगी पा ले तो उसे कोई हर्ष नहीं होता. आँखों को भले ही कितना लगे परंतु क्या आकाश को कभी धुंआ छू भी सका है? इसी प्रकार एक योगी का मन सदा ही पुण्य और पाप से परे रहता है". "राजगोपाल तुम्हें बीच में टोक रहा हूँ परंतु मुझे ऐसा लगता है कि भगवान कृष्ण ने जो अर्जुन को सन्देश दिया था यह बहुत कुछ वैसा ही है. परंतु भगवान कृष्ण को समझाने में इतना समय लगा और जनक तो पहले प्रकरण में ही समझ गए थे. ऐसा कैसे हुआ?". "वह इसलिए कि अर्जुन वहाँ ज्ञान प्राप्त करने नहीं गया था. अर्जुन वहाँ युद्ध के लिए गया था परंतु युद्धभूमि पर उसकी बुद्धि मोहित हो गयी. अपने परिजनों से युद्ध का सोच कर उसका कंठ सूखने लगा. कृष्ण उसके मित्र की भूमिका में थे किसी गुरु की नहीं. ऐसी विपरीत परिस्थिति में अर्जुन को भगवान कृष्ण ने उपदेश दिया. यहां तो जनक स्वयं ज्ञान पाना चाहते थे. अष्टावक्र ज्ञानी पुरुष के रूप में उन्हें प्रभावित कर ही चुके थे और जनक की ज्ञान की प्यास को अष्टावक्र ने परीक्षा ले कर और प्रबल कर दिया. फिर उन्हें तो जल्दी समझ आना ही था". "मैं समझ गया मित्र. अब आगे का वृत्तान्त कहो". "अष्टावक्र बोले, 'जिसने आत्मा के सत्य को अपना लिया उसके लिए प्रारब्ध तो है ही नहीं और न ही उसे रोकने का सामर्थ्य किसी में है. चाहे ब्रह्मा हो अथवा चींटी कौन इच्छा अनिच्छा से परे हो सका है परंतु ज्ञानी को इच्छा अनिच्छा बाँध नहीं सकती. ज्ञानी परमसामर्थ्यवान है परंतु इस संसार में ऐसे लोग कम ही मिलते हैं'." इतने में श्रवण के घर से उसकी श्रीमती ने भोजन के लिए बुलावा भेजा. श्रवण का मन तो नहीं था परंतु समय देखा तो लगा कि बेचारा राजगोपाल भी तो इतने समय से मुझे प्रवचन दे रहा है अतः इसे भी विश्राम करने देना चाहिए. उठते हुए बोला, "ठीक है भाई राजगोपाल. यह सत्संग अभी पूरा नहीं हुआ. कल फिर आता हूँ इस चौथे प्रकरण के आगे का भाग जानने के लिए". श्रवण चला गया तो राजगोपाल ने पुस्तक को यथास्थान रखा और मुंह हाथ धो कर पूजा की तैयारी करने लगा. |
Author - Architलाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II Archives
February 2021
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