राम और कृष्ण में एक बड़ा भेद यह भी है कि राम ने सदा समाज को ध्यान में रखकर निर्णय लिया. उनका प्रयास रहा कि लोग दुःखी ना हों. इसी प्रयास में उन्हें सीता की अग्नि परीक्षा की लीला करनी पड़ी एवं इसलिए ही उन्हें सीता के वियोग में रहना पड़ा. रामायण जो टेलीविज़न (दूरदर्शन) पर प्रसारित हुआ था उसमें तो राम को सीता को स्वीकार करने के लिए भी एक सभा बुलानी पड़ी जिसमें वाल्मीकि ने सीता के पवित्र होने की बात कही. राम क्या यह सब जानते नहीं थे? जिस सीता के लिए उन्होंने रावण से युद्ध किया, उन्हें क्या उस सीता पर विश्वास नहीं था! सीता की अग्निपरीक्षा एवं सीता को राज्य से निकाल देना यह सब राम के उन प्रयासों में से थे जो उन्होंने लोगों को प्रसन्न करने हेतु किये. उसी प्रयास में उनका अपना जीवन विरह एवं क्लेश में गया. यद्यपि वो ईश्वर थे और उनका मनोबल एवं आत्मबल अतुलनीय था किन्तु यह सन्देश तो राम चरित्र पढ़ कर मिलता ही है. कृष्ण ने सदा लोकहित का विचार किया. लोग चाहे कुछ भी कहें, कृष्ण ने वही किया जो उचित था. राम ने वह किया जो मर्यादा में उचित था एवं एक राजा को जो करना चाहिए था. जब जरासंध के मथुरा पर आक्रमण होने लगे तो कृष्ण ने सभी को मथुरा छोड़ द्वारका में जाने का परामर्श दिया. उनका घोर विरोध हुआ किन्तु तर्क वितर्क में कृष्ण से बढ़ कर कौन होगा तो लोगों को जाना ही पड़ा. महाभारत युद्ध में भी कृष्ण ने भीष्म पर चक्र उठाने का दृश्य दिखा कर एक प्रकार से अपना वचन ही तोड़ा. उन्होंने सब प्रकार के छल किये जो परिस्थिति के अनुसार उचित थे. यहाँ मैं रासलीला वाला विषय नहीं लाऊंगा क्योंकि उस विषय को कवियों ने पहले ही बहुत तोड़ मरोड़ दिया है और कई संप्रदाय तो केवल राधा की भक्ति से ही आगे बढ़ रहे हैं. जहाँ ना पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि वाली कहावत को कृष्ण जीवन में कवियों ने बहुत भुनाया है. पांडवों ने भी वही किया जो कृष्ण करवाना चाहते थे. जब अर्जुन जैसे शूरवीर ने कह दिया कि उससे युद्ध नहीं होगा (दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्, सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति) तो कृष्ण ने उसे प्रेरित किया एवं उस युद्ध को होने दिया. ऐसा लगता है जैसे जो अपने से अधिक लोगों (दूसरों) की सुनता है वो प्रायः कष्ट ही उठाता है. कर्ण, भीष्म एवं महाभारत के अनेकों पात्र अपनी विवशता जताते पाये जाते हैं. क्यों? वे सभी अपने वचन अथवा दायित्व से बंधे हुए प्रतीत होते हैं. उन्हें मृत्युभय नहीं है. वे जानते हैं कि पराजय भी मिलेगी, और वे यह भी जानते हैं कि वे अनुचित का साथ दे रहे हैं किन्तु मात्र अपने वचन अथवा दायित्व का निर्वाह करने के लिए वे विवश हैं. कृष्ण ने सदा ही आज के जीवन को महत्व दिया और उसके लिए उन्हें वचन तोडना पड़ा तो उन्होनें तोड़ दिया. |
Author - Architलाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II Archives
November 2020
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