(१) जैसे प्रतिदिन कार्यालय जाता था वैसे ही आज भी गया था परन्तु जैसे प्रतिदिन लौट आता था वैसे लौटा नहीं. हुआ यूँ था कि जिस गाड़ी (बस) से वह रोज़ शाम को घर आता था उसमें न जाने किस दुष्ट ने एक भयानक विस्फोट कर दिया. उसे तो पता भी नहीं चला कब उसके और उसके सहयात्रियों के शरीरों के परखच्चे उड़ गए. वह मर गया था. उसकी देह के एक से अधिक टुकड़े हो चुके थे. सब अचानक हुआ. अकस्मात्. (२) अपने घर के द्वार पर उसे खटखटाना न पड़ा. कोई यात्रा भी न करनी पड़ी. वह तो बस पहुँच गया. पत्नी का स्मरण हुआ, मिलने की इच्छा हुई और पहुँच गया. मन की गति क्या होती है यह आज उसने अनुभव किया था. पत्नी रीना अभी अभी घर पहुँची थी. उसका कार्यालय समीप ही था तो वह प्रायः उससे जल्दी ही घर आ जाती थी. उसने रीना को देखा तो पुकारा परन्तु रीना सुन क्यों नहीं रही थी. (३) उसका नाम सतीश था. पेशे से एक अभियंता (इंजीनियर) था जो एक बड़ी अंतर्राष्ट्रीय संस्था के लिए काम करता था. माता पिता तो कब के संसार को विदा कह चुके थे. परिवार में केवल एक पत्नी और दो बच्चे थे जिनके साथ उसे कोई समस्या नहीं थी. समस्या थी तो नौकरी से. नौकरी करने वाले को यदि नौकरी करने की (अथवा जीवन जीने की) कला न आती हो तो फिर उसका सुखी रह पाना कठिन है. कभी कभी वह सोचता था, 'इससे अच्छा तो भगवान मुझे अपने पास ही बुला ले'. तो क्या आज भगवान ने उसकी सुन ली थी. (४) सतीश ने तीन चार बार रीना से संपर्क साधने का प्रयास किया परन्तु रीना के कानों पर जूँ तक न रेंगी. उसे समझ तो आ रहा था कि रीना को कुछ आभास हो रहा है किन्तु रीना अपने प्यारे सतीश को पहचान क्यों नहीं पा रही थी. कि तभी असमंजस में पड़े सतीश को एक युक्ति सूझी जिससे उसका काम आसानी से बन सकता था. हा! क्यों वह बार बार भूल जाता था कि अब वह एक शरीर नहीं है. वह रीना के शरीर में प्रवेश कर गया. (५) रीना का वय कोई पैंतीस वर्ष होगा. अपने पति की भांति वह भी काम पर जाती थी. उसकी आमदनी सतीश से कुछ कम थी परन्तु दायित्वों को बोझ सतीश से कहीं अधिक उसके कन्धों पर था. सब कुछ संभाल रखा था उसने और कभी जताती नहीं थी इसीलिए सतीश की आँखों का तारा थी. सतीश भी प्रयास करता कि उसे किसी न किसी प्रकार खुश रखे. कहा जाये तो दोनों का वैवाहिक जीवन बड़ा ही सुखमय था. (६) सतीश ने रीना के शरीर में प्रवेश किया. उसके मस्तिष्क के उन भागों तक पहुँचा जहाँ से वह उस तक अपनी बात पहुँचा सकता था. और फिर जब उसने कहा, "रीना" तो रीना ने इधर उधर देखा. कुछ दिखाई न दिया. सतीश ने कहा, "रीना. मैं तुम्हारा सतीश हूँ. घबराओ नहीं". (७) यद्यपि रीना एक साहसी महिला थी परन्तु ऐसी परिस्थिति में वह भी थोड़ी अधीर होने लगी. रीना को तब तक सतीश की मृत्यु की कोई सूचना नहीं मिली थी अतः उसे यकायक कुछ समझ न आया परन्तु आवाज़ तो सतीश की ही थी. अपने पति का स्वर कौन स्त्री नहीं पहचानती भला. (८) उसने साहस करके पूछा, "कौन हो तुम और कहाँ से बोल रहे हो. दीखते क्यों नहीं". सतीश ने कहा, "मैं तुम्हारा पति सतीश हूँ रीना. अब मैं कभी न दीख सकूंगा. जिस शरीर को तुम्हारी इन्द्रियाँ देख पाती थीं वह अब क्षत विक्षत हो चुका है. जिस बस से मैं घर लौट रहा था उस बस में यात्रा कर रहे सभी लोगों की मृत्यु हो गयी." रीना के नेत्रों से अश्रुओं की धार बह चली. (९) सतीश ने उस दिन तक केवल सुना ही था कि अकस्मात् सब चला जाता है. श्मशान घाट में कुछ एक बार तो थोड़ा बहुत महसूस भी किया था परन्तु कभी गंभीरता से इस बात को नहीं लिया. भगवान का नाम लेने का अथवा आत्मचिंतन करने का उसके पास समय नहीं था क्योंकि पहले पढ़ाई में और फिर नौकरी में अधिक से अधिक आगे बढ़ने में ही सारा समय लग जाता था. बचा हुआ समय परिवार को देना होता था. (१०) सतीश ने रीना से आगे कहा, "मेरा शरीर अब नहीं रहा परन्तु मैं अभी भी हूँ. तुम तक मेरा सन्देश पहुँच रहा है वही इस बात का प्रमाण है कि मैं हूँ. परन्तु सदा तुम्हारे पास रहूंगा इसका ठीक ठीक उत्तर मेरे पास नहीं क्योंकि तुम भी सदा इस शरीर में नहीं रहने वाली. मेरी ही भांति तुम भी 'यह शरीर नहीं हो'." रीना को सतीश के स्वर में आज एक दिव्यता का अनुभव हो रहा था. वह चुपचाप सुनती रही जो सतीश उसे कह रहा था. (११) रीना ने भावुक स्वर में उसे पूछा, "तुम अचानक इतनी निष्ठुरता भरी बातें कैसे कर रहे हो. क्या तुम बहुत बड़े ज्ञानी हो गए हो. तुम्हें लगता नहीं कि मेरा और तुम्हारे बच्चों का तुम्हारे बाद क्या होगा. क्यों नहीं तुम मेरे पास ही रह जाते? क्यों नहीं तुम हमारी सहायता करते." (१२) सतीश ने बड़े ही संयत स्वर में उत्तर दिया, "प्रिये, तुम्हारा प्रेम ही है जो मुझे यहाँ तक खींच लाया है. यह तुम्हारी प्रबल आत्मशक्ति ही है कि मैं तुम तक पहुँच सका अन्यथा बहुत लोग तो मरणोपरांत अपने लोगों से संपर्क ही नहीं साध पाते. मैं तुमसे केवल वह रहस्य साझा करने आया हूँ जो मैंने अपने पारलौकिक नेत्रों से देखा और मैं चाहता हूँ तुम भी इसे समझो और अपने जीवन को भी सार्थक करो." (१३) "जब मेरा शरीर नष्ट हुआ तो मैं शरीर से बाहर निकल आया. उस समय मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैं अनंत हो गया हूँ. मेरी कोई सीमा ही नहीं थी. मैंने एक ऊर्जा का जाल देखा जो पूरे विश्व में पसरा हुआ था. सभी के शरीरों से वह ऊर्जा निकल रही थी. मानव, पशु, पेड़, पौधे सभी के शरीरों से; और वह ऊर्जा सभी को एक दूसरे से जोड़ रही थी. मुझे तब लगा कि हो सकता है इसलिए ऋषि मुनियों ने अद्वैत का सिद्धांत बताया. (१४) उस जाल के स्त्रोत का मुझे नहीं पता. वह जाल जाने कहाँ तक फैला हुआ है. शायद उस परमात्मा तक. मुझे ऐसा लग रहा है रीना जैसे मैं नदी की एक बूँद हूँ. नदी के साथ बह रहा हूँ तो नदी हूँ परन्तु वास्तव में उस प्रवाह का एक हिस्सा भर हूँ. नदी कहाँ से आती है और कहाँ को जाती है अभी तक मुझे नहीं पता. मैं नदी के अंत तक पहुँच भी सकूंगा या नहीं यह भी मेरे हाथ में नहीं है. क्या पता मार्ग में ही कोई पशु मुझे पी जाये, क्या पता सूर्य की किरणें वाष्पीकृत कर के मुझे कहीं का कहीं पहुंचा दें. क्या पता मेरा क्या हो." (१५) रीना ने पूछा, "तो क्या हम सब वास्तव में एक हैं! मैं क्यों यह नहीं देख पाती? क्या मनुष्य यह नहीं देख सकता? अब तुम्हारा क्या होगा. कहाँ जाओगे तुम?" (१६) "रीना, मैंने देखा कि अधिकतर प्राणी अपने इस अस्तित्त्व से अनभिज्ञ हैं. मुझे लगता है यह जीवन तो केवल एक चरण है. यात्रा बहुत लम्बी है. मैंने उन महापुरुषों को भी देखा जो मुझे मेरे शरीर के बिना भी देख पा रहे थे अर्थात् मेरे मर जाने के बाद भी. उनकी शरीर से निकलने वाली ऊर्जा दिव्य थी. वे लोग अपने शरीरों से ऊपर उठ चुके हैं अतः इन्द्रियों के परे भी देख सकते हैं. इन्द्रियों की अपनी एक सीमा है. मैं चाहता हूँ तुम भी उन महापुरुषों की भांति मुझे देख पाओ." (१७) "मेरा तो अब क्या होगा मैं भी नहीं जानता. मुझे पता नहीं मुझे लेने यमदूत आएंगे अथवा शिवगण. स्वर्ग, नरक, वैकुण्ठ, मैं कहाँ जाने वाला हूँ मुझे नहीं पता. क्या मेरा पुनर्जन्म होगा? कह नहीं सकता परन्तु इतना अवश्य है कि मुझे बहुत नींद आ रही है. लगता है कि मैं एक गहरी नींद में जाने वाला हूँ. कब तक सोऊँ, क्या पता. बहुत सारे प्रश्नों के उत्तर अभी मेरे पास नहीं है. शायद भगवान नहीं चाहता कि इससे अधिक अभी मुझे जानना चाहिए." (१८) "मैं उस गहरी नींद में चला जाऊँ उससे पहले तुमसे अपना अनुभव कहना चाहता था. मैंने तो कभी अपने जीवन में आत्मचिंतन किया नहीं परन्तु तुम संसार को एवं इस जीवन को समझ सको इसलिए तुम्हारे पास चला आया. अब मेरे लिए और कुछ कहना कठिन हो रहा है. जाने कब तुमसे मेरा संपर्क टूट जाये. यह कभी न समझना कि मैं समाप्त हो गया. मैं हूँ और सदा रहूँगा किन्तु कहाँ यह अभी मुझे पता नहीं. मेरा स्मरण कर दुखी होने की अपेक्षा सत्य को समझ लेना." (१९) बस वही अंतिम स्वर था सतीश का जो रीना को सुनाई पड़ा था. उसके बाद वह घंटों सतीश से जुड़ने का प्रयास करती रही परन्तु उस तक पहुँच न सकी. |
Author - Architलाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II Archives
February 2021
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