समाज की ओर से व्यक्ति पर बहुत से दबाव होते हैं (जैसे कमाई, संपर्क, आचरण, धन, पराक्रम, चरित्र, आदि) परन्तु सर्वाधिक दबाव किसी बात का पड़ता है तो वह है विवाह का और एक बार विवाह हुआ तो फिर संतान उत्पन्न करने का. यदि किसी कारण विवाह के पश्चात् संतान उत्पत्ति में विलम्ब हुआ तो फिर लोग तरह तरह की बातें करना शुरू देते हैं. तंग आकर व्यक्ति क्या नहीं करता. कोई चिकित्सक से परामर्श लेता है तो कोई ज्योतिषियों से उपाय पूछता है. कोई कोई तो तांत्रिक के चक्कर में पड़कर जाने कैसे कैसे उपाय भी करता है परन्तु होइहि वही जो राम रचि राखा. महातपस्वी जरत्कारु ऋषि को एक दिन यूँ ही भ्रमण करते हुए मार्ग में कुछ पितर लटके हुए दिखाई दिए. जहाँ पितर लटक रहे थे, वहाँ नीचे गड्ढा था. जिसके सहारे वे दुबले पतले पितर लटके थे, वह केवल एक तिनका था और उस तिनके को भी चूहा कुतरे जा रहा था. जरत्कारु ऋषि को मन में करुणा हुई तो उन्होंने पितरों से उनका परिचय पूछा. उन्होंने जानना चाहा कि किस प्रकार उन पितरों को उस अवस्था से मुक्ति मिल सकती थी. ऋषि दयावान तो होते ही थे. जरत्कारु पितरों की रक्षार्थ अपनी तपस्या का संपूर्ण फल देने को भी तैयार हो गए. पितरों ने कहा, "हम भी ऋषिगण हैं और तपोबल हमारे पास भी है परन्तु हमारे वंश को आगे बढ़ाने वाला अब कोई नहीं रहा जिससे हमारी यह गति हुई है. एक ही व्यक्ति है जो हमारा वंश बढ़ा सकता है परन्तु वह केवल तप ही करता है. विवाह करके संतान उत्पन्न नहीं करता. उसका नाम जरत्कारु है. तुम्हें कहीं वह मिले तो उसे हमारे विषय में बताना. जो कुछ भी यहाँ देखा वह उसे सुनाना और कहना कि हमारा उद्धार केवल वही कर सकता है." जरत्कारु को जब यह पता चला कि वह विपत्तिग्रस्त पितर उन्हीं के पूर्वज हैं तो उन्हें बड़ा क्षोभ हुआ. उन्होंने कहा, "मैं ही जरत्कारु हूँ. आज तक मेरे मन में यही था कि जीवन तपस्या करते हुए ही व्यतीत करूंगा परन्तु यदि आपकी मुक्ति मेरे विवाह करने और संतान उत्पन्न करने से होती है तो मैं वह भी करने को तैयार हूँ." इस प्रकार जरत्कारु अपने पितरों को आश्वस्त कर वहाँ से चल दिए. इस कथा के अनेकों अर्थ निकाले जा सकते हैं. एक अर्थ यह भी हो सकता है कि हिन्दू धर्म पलायनवाद नहीं सिखाता. 'सब कुछ छोड़ो और साधु बन जाओ', यह हमारा धर्म नहीं है. परिवार नहीं हुआ तो फिर सृष्टि आगे कैसे बढ़ेगी इसके लिए संतान उत्पन्न होना आवश्यक है. यद्यपि जरत्कारु ऋषि के मन में विवाह बंधन में बंधने और संतान पैदा करने की कोई इच्छा नहीं थी तथापि उन्होंने परिस्थिति के दबाव में आकर यह निर्णय लिया. ऐसी और बहुत सी कथाएं हिन्दू धर्मग्रंथों में पढ़ने को मिलती हैं जहाँ संतान उत्पन्न करने पर और विशेषकर पुत्रप्राप्ति पर बल दिया गया है. जिस समय ऐसी कथाएं कही गयी थीं तब जनसँख्या आज जैसी नहीं हुआ करती थी. होती भी थी तो समय समय पर होने वाले युद्धों के फलस्वरूप पुनः नियंत्रित हो जाती थी. एक व्यक्ति के अनेकों पुत्र-पुत्रियां हुआ करते थे. उस समय बहुविवाह पर रोक नहीं थी. परिवार संयुक्त थे. एक एक राजा की कितनी कितनी रानियां होती थी. इसी बात से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि पुत्री होना कोई शोक का विषय नहीं था. पुत्री दूसरे का वंश बढ़ाती थी और पुत्र अपना. दोनों ही महत्त्वपूर्ण थे. हाँ, यह अवश्य है कि समय के साथ कुछ लोग पुत्री के जन्म को बुरा समझने लगे और पुत्र जन्म को अहंकार से जोड़ कर देखने लगे. जहाँ अहंकार आया वहाँ तो फिर कौन अधिक कुछ कहे? आज समाज बहुत बदल चुका है और दिन प्रतिदिन बदल ही रहा है. अनुसन्धान करते रहने वाली ऋषि परंपरा लुप्त हो गई है. ऐसे में कौन बताये कि प्राचीन काल में कही गयी बातें आज के परिपेक्ष्य में कितनी उचित हैं. उदाहरण के लिए मध्यकाल में कभी पुत्रजन्म को अच्छा और पुत्री को अच्छा नहीं मानने का चलन चला जिसके फलस्वरूप आज भी कुछ लोगों में पुत्रप्राप्ति की आकांक्षा अतिप्रबल रहती है. यह भी सत्य है कि कुछ लोगों के लिए पुत्र हो या पुत्री कोई भेद नहीं है परन्तु कुछ लोगों को पुत्र ही चाहिए होता है. पुत्र की चाह में फिर पुत्रियों की संख्या बढ़ाते चलते हैं क्योंकि अन्य क्रूर विकल्प तो दण्डनीय अपराधों की श्रेणी में आते हैं. जितना थोड़ा बहुत मुझे पता है उसके अनुसार हिन्दू धर्मग्रंथों में पुत्री के जन्म पर निषेध नहीं है. पुत्री का जन्म होना बुरा नहीं है. पुत्री होगी तभी तो किसी के पुत्र से विवाह करेगी और किसी के वंश को आगे बढ़ाएगी. ऐसी भी कन्याओं की कथा पढ़ने में आती है जिन्हें उनके माता पिता ने तपस्या कर प्राप्त किया. पुत्री होने से किसी का गौरव कम नहीं होता था परन्तु पुत्र होने से यह एक सांत्वना हो जाती थी कि वृद्ध होने पर हमारे साथ कोई रहेगा और हमारे वंश को आगे बढ़ाएगा. उस समय जनसँख्या इतनी नहीं थी इसलिए वंशवृद्धि के लिए बल दिया गया होगा. आज के समय में युवक हो अथवा युवती, दोनों आगे बढ़ने की होड़ में लगे हैं. आगे बढ़ने का अर्थ अधिकाधिक धनोपार्जन और भौतिक सुख सुविधाएं एकत्रित करना. संयुक्त परिवार गिने चुने ही रह गए हैं. जो रह गए हैं वे भी शनैः शनैः समाप्ति की ओर ही अग्रसर हैं. छोटे परिवार और छोटे हो गए हैं. आज के समय में परिवार का अर्थ है पति पत्नी और छोटा बच्चा. छोटा बच्चा इसलिए कहा क्योंकि बच्चा बड़ा होते ही शहर (अथवा देश) से बाहर निकल जाता है (पढ़ाई और फिर नौकरी के लिए) और फिर अपना परिवार बसाता है जिसमें माता पिता अतिथि की तरह प्रवेश करते हैं. आज के समय में प्रायः पति और पत्नी दोनों ही कमाने वाले होते हैं. भौतिकवादी प्रवृत्ति बढ़ने से मानसिक तनाव इतना अधिक हो चला है कि पति पत्नी दोनों को ही लगता है कि घर आ कर केवल आराम करो. और एक बात यह भी है कि घर के काम को बहुत से लोग महत्त्वपूर्ण नहीं समझते इसलिए बहुत लोगों के घर के लगभग सारे काम अब कामवालियां करती है. आज जब व्यक्ति के पास स्वयं के लिए समय नहीं है तो वह संतान को कितना समय देगा यह एक यक्ष प्रश्न है. कितने ही माता पिता बच्चे का ध्यान रखने के लिए बाई रखने लगे हैं. जो ऐसा नहीं कर पाते वे अपने बच्चों को शिशुगृह (क्रेच) में छोड़ देते हैं. कई विद्यालय छात्रावास (हॉस्टल) की सुविधा देने लगे हैं. कुछ महिलायें बच्चों के पालन पोषण के लिए नौकरी छोड़ देती हैं परन्तु ऐसी गृहिणियों की संख्या बहुत कम है. लोग क्या कहेंगे इस बात की चिंता मनुष्य को सदा से विचलित करती रही है. विवाह होते ही माता पिता अपने पुत्र और पुत्रवधू पर दबाव डालना आरम्भ कर देते हैं. सम्बन्धी भी आशीर्वाद के नाम पर संतान प्राप्ति का ही आशीर्वाद देते हैं. ऐसे में कई बार व्यक्ति दूसरों की प्रसन्नता मात्र के लिए माता अथवा पिता होने का निर्णय लेता है. जिनको कुछ समस्या आती है (गर्भधारण में) वह माता-पिता अथवा सास-ससुर के उलाहने झेलने को विवश हो जाते हैं. प्रायः स्त्रियों को अधिक सुनने को मिलता है. जीवन के किसी भी क्षेत्र में लोग क्या कहेंगे इस बात की चिंता किये बिना जो दृढ़तापूर्वक निर्णय लेता है वही सुखी होता है या फिर वह जो भगवान कृष्ण के कहे अनुसार अपने कर्म ईश्वर को समर्पित कर कर्मयोगी सरीखा जीवन जिए. |
Author - Architलाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II Archives
February 2021
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