हरेर्नाम्नि च या शक्तिः पापनिर्हरणे द्विज। तावत्कर्तुम् समर्थो न पातकं पातकी जनाः॥ भगवान् विष्णु गरुड़जी से कहते हैं - हे द्विज! पापों का हरण करने की जितनी शक्ति हरिनाम में है उतना तो पातकी (पापी) व्यक्ति में पातक करने का सामर्थ्य नहीं है. मेरी माताजी ने जीवन भर ईश्वर का नाम लिया. भले पूजा में कितनी देर हो जाये परन्तु जब तक पूजा न हो जाये तब तक वह भोजन नहीं करती थीं. ग्रहदशा विपरीत हुई तो उनके लिए धरती पर बैठ पाना कठिन होने लगा. ऐसे में उन्होंने बिस्तर पर ही भागवत महापुराण का अध्ययन आरम्भ कर दिया और उसे पूरा भी किया. बाद में स्थिति और बिगड़ गयी तो बिस्तर पर बैठना भी कठिन होने लगा. ऐसे में वह लेटे लेटे ही सुन्दरकाण्ड का पाठ करती थीं. यह सब किसी भय के कारण नहीं था. उनको ईश्वर से सहज प्रेम था. प्राणत्याग देने के पश्चात् भी उनका मुखमण्डल ईश्वरीय तेज से दमक रहा था. अजामिल ने तो पुत्र के बहाने से नारायण नाम लिया था तब भी ईश्वर ने उसे अपना धाम दे दिया ऐसे में मेरी माताजी जैसे भगवद्भक्त को क्या वह परमगति नहीं प्रदान करेंगे. शैय्या दान के लिए अनिच्छा जताने पर ब्राह्मण मुझ पर हँसने लगे और समझाने लगे कि उनको यममार्ग में कठिनाई न हो इसलिए यह बहुत आवश्यक होता है. सामाजिक विवशता कहो या मेरा अज्ञान, या व्यर्थ वाद विवाद की अनिच्छा, महाब्राह्मण दान ले कर ही माने. परन्तु अब जितना गरुड़ पुराण मैं समझ पा रहा हूँ, मेरी माताजी जैसी धार्मिक व्यक्ति की रक्षा तो ईश्वर स्वयं कर लेंगे. उन्हें कष्ट क्योंकर होगा. सबका भला सोचने वाली मेरी माताजी को यममार्ग पर चलना पड़ा होगा इसमें मुझे विश्वास नहीं. यह मैं अहंकारवश या मोहवश नहीं कहता. यह तो गरुड़ पुराण में ही मिलता है - यमराज ने अपने किङ्करों को कह रखा है कि हे दूतों! हरिनामस्मरण करने वालों को मेरे पास मत लाओ. मेरे पास तो नास्तिक जनों को ले कर आओ. किङ्करेभ्यो यमः प्राह नयध्वं नास्तिकं जनं। नैवानयत भो दूता हरिनामस्मरं नरम्॥ भगवान विष्णु ने गरुड़जी को कहा था - ये नरा ज्ञानशीलाश्च ते यान्ति परमां गतिम्। जो नर ज्ञानशील हैं वे परम गति को प्राप्त होते हैं. नरक में तो वे लोग जाते हैं जो सदा पापकर्मों में लगे रहें, दयाधर्मविवर्जित हों, दुष्टों की सङ्गति करें, सत्सङ्ग से परे रहें, अच्छे शास्त्रों का अध्ययन न करें, धन और मान के मद में चूर रहें, आसुरी भाववाले हों, अनेकचित्तविभ्रान्ता (अनेकों विषयों में चित्त को लगाए रखने के कारण भ्रान्त हुए लोग), मोह, काम और भोग में फँसे लोगों का पतन अपवित्र नरक में होता है. दान पुण्य ऐसे पापकर्मा लोगों की सहायता तो कर सकता है परन्तु उन्हें कर्मफल भोगने से बचा नहीं सकता. पुत्र अथवा पौत्र द्वारा दिया पिण्डदान उन्हें प्रेतदेह प्राप्त कराता है, विविध पुरों (नगरों) को पार करने में सहायता कराता है और अन्य दान वैतरणी नदी को पार करने में सहायक होता है. वैतरणी शब्द वितरण से बना है जिसका तात्पर्य दान से है. रक्त और पूय ले कर बहने वाली यह नदी भयंकर जलचर जीवों से भरी है और पापियों को देख कर तो यह खौलने लगती है. इसे देखने मात्र से ही पापियों को भय होने लगता है और वह रोने लगते हैं. जिन्होंने भगवान् कृष्ण का चिन्तन किया हो, स्मरण किया हो उन्हें ईश्वर ऐसी विपदाओं में क्यों डालेंगे भला. गरुड़ पुराण में भगवान विष्णु कहते हैं - कृष्णनाम के प्रभाव से व्यक्ति के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं. वह नरक को तो क्या यम और उनके दूतों को स्वप्न में भी नहीं देखता. कृष्णनाम्ना न नरकं पश्यन्ति गतकिल्बिषाः। यमं च तद्भटांश्चैव स्वप्नेSपि न कदाचन॥ यह ठीक है कि गरुड़ पुराण में पुत्र को निर्देश है कि अन्तकाल में सभी प्रकार का दान दिलाये परन्तु इन सब दानों के शुभफलस्वरुप यमराज, अथवा उनके सेवकगण प्रसन्न होते हैं. तो यह दान प्रक्रिया भी कदाचित् हरिनामविमुख लोगों के लिए ही है. यह दान पापों से मुक्ति दिलाते हैं. मेरी माताजी जैसे कर्मयोगी लोग जो ईश्वर के लिए ही जीते थे उनकी रक्षा तो ईश्वर स्वयं करेगा. इसमें संशय नहीं. इसका अर्थ यह नहीं कि हम आलस्यवश अन्तिम संस्कार न करें और दान न दें परन्तु लोभ करने वालों को जिन्हें दान का सिद्धान्त तक नहीं पता उन्हें तो मैं कदापि दान देने के पक्ष में नहीं हूँ. गरुड़ पुराण में ही कहा है - अपात्रे सा च गौर्दत्ता दातारं नरकं नयेत्। अपात्र को दान दिया, तो वह दान दाता को नरक में ले जायेगा. इसलिए व्यक्ति को सोच समझकर दान करना चाहिए. दान देने के लिए तो वे सभी काल उत्तम हैं जिनमें श्रद्धा उत्पन्न हो और सुपात्र मिल जाये. यदैव जायते श्रद्धा पात्रं सम्प्राप्यते यदा। स एव पुण्यकालः स्याद्यतः सम्पत्तिरस्थिरा ॥ ऐसे में कोई आपको डरा कर दान ले तो क्या दान देना चाहिए. दान तो स्वेच्छा से होता है. अपनी श्रद्धा से होता है और अपनी शक्ति सामर्थ्य के अनुसार होता है तो ही श्रेष्ठ है. और स्वयं पर तथा अपने पूर्वजों के कर्मों पर कुछ तो विश्वास होना चाहिए. वैतरणी नदी, यमलोक या स्वयं धर्मराज (यमराज) किसी पुण्यात्मा को क्यों कष्ट प्रदान करेंगे. मैं कहीं भी दान के विरोध में नहीं हूँ परन्तु जबरन लिए जाने वाले दान के लिए मेरा समर्थन नहीं. शंकराचार्य की माता का अन्तिम संस्कार करने को समाज ने जब मना कर दिया तो उन्होंने अपने योगबल से अग्नि प्रज्वलित कर माता का अन्तिम संस्कार किया. तो क्या समाज विरुद्ध बात होने से उनकी माता को सद्गति प्राप्त न हुई होगी. गंगाजल की महिमा भी गरुड़ पुराण में पढ़ने को मिलती है कि कैसे गंगाजल सारे पातकों को भस्म कर देता है. ऐसे में गंगाजल की महिमा को दान के लोभी लोग नहीं बताते. गंगाजी का तो दर्शन, स्नान, पान, अथवा स्मरण ही पवित्रता प्रदान करने वाला है तो फिर गंगाभक्तों के लिए यमराज का कैसा भय. मेरी पूज्य माताजी को गंगाजी ने अनेकों बार साक्षात् दर्शन दिए थे. यद्यपि वह गृहस्थ थीं परन्तु मैं तो समझता हूँ वह वास्तव में उच्चस्थिति को प्राप्त किसी योगी के सामान ही थीं. लोहा, तिल, कपास, नमक, सप्तधान्य का तो दान करना तो बहुत लोगों के लिए सरल है परन्तु स्वर्ण, भूमि और गाय का दान करना उतना सरल नहीं. यह भी ध्यान देने वाली बात है कि जब यह पुराण रचे गए थे तब भूमि, स्वर्ण आदि साधारण लोगों की पहुँच में था. आज सौ गाय और एक बैल के विचरने लायक भूमि दान देना तो साधारण व्यक्ति के लिए अत्यन्त कठिन है. इसी प्रकार गोदान, हो सकता है किसी के लिए सरल हो परन्तु देने वाला यह भी सोचे की गोदान लेने वाला क्या गो माता को पाल सकेगा. प्राचीन ब्राह्मणों और आधुनिक ब्राह्मणों का जीवन बहुत बदल गया है. यह ऊहापोह अवश्य करनी चाहिए. एक बात जो दान माँगने वाले नहीं बताते वो यह है कि अष्टदान में से कोई एक दान भी पवित्र करने वाला होता है. तिला लोहं हिरण्यं च कार्पासो लवणं तथा। सप्तधान्यं क्षितिर्गावो ह्येकैकं पावनं स्मृतं॥ आजकल तो वे अपनी एक धनराशि बता देते हैं जिससे सारे दान पूरे हो जायें. कृपा इतनी है कि स्वर्ण, गौ और भूमि के लिए हठ नहीं करते. गरुड़ पुराण मैंने पहले पढ़ा तो था परन्तु कभी प्रेतकल्प को ध्यान से पढ़ने की ओर प्रेरित नहीं हुआ. माताजी के देहावसान के पश्चात् कर्मकाण्ड करते हुए ऐसा लगने लगा कि यह तो अवश्य ही पढ़ा होना चाहिए था. अब अध्ययन के बाद लगता है कि यह तो मनुष्य को जीते-जी स्वयं पढ़ना चाहिए न कि मात्र औपचारिकता निभाने के लिए मरणोपरान्त किसी से पाठ कराना चाहिए. शैय्या-दान एवं अन्य दानों के लिए, "कम से कम इतना तो चाहिए ही”, ऐसे वाक्य सुन कर गरीब व्यक्ति की क्या दशा होती होगी. पुराणों की जानकारी न होना धर्मभीरु व्यक्ति को ठगे जाने पर विवश कर देता है. व्यक्ति को चाहिए कि अपने धर्मग्रन्थों का भली प्रकार अध्ययन करे, अपने तथा अपने पूर्वजों के चरित्र का चिन्तन करे और विवेक से निर्णय ले. अन्यथा शास्त्रसद्भावो व्याख्यां कुर्वन्ति चान्यथा । शास्त्र का सद्भाव तो अन्यथा है (कुछ और है) परन्तु उसकी व्याख्या कुछ और ही की जाती है. |
Author - Architलाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II Archives
February 2021
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