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धर्म / समाज पर विविध विचार

क्या ब्राह्मण होने मात्र से कोई बुरा हो जाता है?

16/2/2018

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यह बात छोटी सी है पर इसका विस्तार बहुत बड़ा है. कुछ दिनों पहले एक महिला माननीय प्रधानमन्त्री मोदीजी के भाषण के बीच अट्टहास करने लगीं. सभापति ने उन्हें रोकना चाहा परन्तु मोदीजी ने जब कहा कि रामायण के बाद पहली बार इस तरह की हँसी सुनने को मिली है तो उन्होंने इस बात को महिला सम्मान के साथ जोड़ दिया.
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समाज में जोडाजोड़ी का यह केवल एक छोटा सा उदाहरण है. अधिकांश मामलों में धर्म, भाषा, राज्य, आदि के नाम पर लोग अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं अथवा अहंकार पोषित करने का ही काम करते हैं. और लोग उनकी बातों में फँसकर आपस में झगड़ने बैठ जाते हैं.

जातिवाद के विषय में भी कुछ ऐसा ही है.

जितना मैंने पढ़ा सुना है उसके अनुसार ब्राह्मणों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होती थी. प्रायः भिक्षा माँग कर ही उनका काम चलता था. सुदामा का उदाहरण सर्वविदित है ही. समाज में धन का कितना महत्त्व है यह एक निर्धन व्यक्ति ही समझ सकता है. यदि आपके पास प्रचुर धन संपत्ति है तो फिर आप कौन जाति के हो यह उतना महत्त्वपूर्ण नहीं रह जाता.

और केवल धन ही क्यों? किसी के पास असाधारण शारीरिक बल हो, अतुलनीय ज्ञान हो, बड़ा कुनबा हो, अथवा इसी प्रकार का कोई और बल हो तो समाज में उसका एक अलग ही प्रभाव होता है. ऐसे में जाति से साधारणतः इतना अंतर नहीं पड़ता. यह अवश्य होता है कि उसकी जाति के नाम पर दूसरे लोग (जिनके पास गुणों का अभाव है) अपना हित साधने में जुट जाते हैं और इसी को आजकल राजनीति कहते हैं.

अब एक बात और है. ब्राह्मण कई प्रकार के थे. कुछ जो शिक्षक थे, कुछ जो मंदिर में पुजारी थे, कुछ जो राजसलाहकर थे, पुरोहित थे इत्यादि. तो ब्राह्मण विविध प्रकार के थे.

ब्राह्मण होने का अर्थ नहीं कि व्यक्ति को संस्कृत आती ही होगी. ब्राह्मण होने का अर्थ यह भी नहीं कि व्यक्ति को वेदों का पूरा ज्ञान हो. मेरी दृष्टि में तो कबीर भी ब्राह्मण थे और मीराबाई भी. ब्राह्मण शब्द से लोग प्रायः ऐसे व्यक्ति की कल्पना करते हैं जो धोती पहने, माथे पर टीका लगाए, गले में माला डाले, शिखा रखे, अथवा कहें कि शरीर से ब्राह्मण जान पड़े. यहीं भूल हो जाती है. शरीर से जातियाँ है ही नहीं. जाति तो वृत्ति को दर्शाती है.

महाभारत के अनुसार जब सर्प ने युधिष्ठिर से पूछा कि ब्राह्मण कौन है तो युधिष्ठिर ने कहा कि जिसमें क्षमा, दया, तपस्या, दान, सत्य, सुशीलता हो और जिसमें क्रूरता न हो वही ब्राह्मण है. इस पर सर्प ने पूछा कि यह गुण तो शूद्र में भी हो सकते हैं तो क्या वे भी ब्राह्मण हो गए? तब युधिष्ठिर ने कहा कि जिसमें उपर्युक्त गुण हैं वह ब्राह्मण है. ऐसे गुणों वाला शूद्र कैसे हो सकता है.

परन्तु यदि ब्राह्मण अच्छे ही थे तो फिर समाज में जो जातिवाद फैला है, लोग जो कहते हैं कि ब्राह्मणों ने, ठाकुरों ने, धनी वैश्यों ने दलितों पर अत्याचार किये वो क्या है. क्या उसमें कोई तथ्य नहीं!

उसमें तथ्य है. उसमें सत्य भी है, परन्तु अधूरा. कुछ लोगों ने गुट बना कर अपना प्रभाव सिद्ध करना चाहा. अपनी तरह से उन्होंने समाज को अपने नियंत्रण में रखना चाहा. कुछ तथाकथित ब्राह्मणों का गुट था, कुछ जमींदार भी ऐसे थे जो अत्याचारी थे, कुछ धनी वैश्यों का भी सुनने में आता है. केवल ब्राह्मण ही नहीं थे और सारे ब्राह्मण, या सारे क्षत्रिय या सारे वैश्य अत्याचारी नहीं थे.  

आज के परिपेक्ष्य में देखिये तो क्या सारे दलित निर्धन है, प्रभावहीन हैं? नहीं न. क्या सारे ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय धनी हैं, प्रभावशाली हैं? उत्तर नहीं ही होगा. परन्तु लोगों को अस्पष्ट रहने में सुख मिलता है. दूसरों से जुड़ने में सुख मिलता है.

महाविद्यालय (कॉलेज) के दिनों में मैं एक भोजनालय में बैठा था तो एक युवक अपने मित्र को शेखी बघार रहा था, "हमने मास्टर को बोल दिया कि सुन लिया न हम कहाँ के है तो पसीने आ जायेंगे. हम मुरैना के हैं". एक समय पर मुरैना डकैतों के कारण प्रसिद्ध रहा है परन्तु इसका अर्थ यह तो नहीं कि वहाँ के सारे निवासी डकैत थे.

इसी प्रकार कई लोग कहते मिल जायेंगे, "मैं मुज़फ्फरनगर का हूँ." मुज़फ्फरनगर अपराध के लिए जाना जाता है परन्तु इसका अर्थ यह तो नहीं कि वहाँ के सभी लोग गुंडे हों. अपने नगर, गाँव, जाति, धर्म के नाम पर लोग अपनी वीरता, विवशता, प्रभाव, आदि बताने में लग जाते हैं.    

यह समाज है. यहाँ सभी प्रकार के लोग हैं. लोग बाबासाहेब आंबेडकर को तो खूब जानते हैं परन्तु बाबा आम्टे के विषय में इतना नहीं जानते. ईश्वरचंद्र विद्यासागर के कार्यों की चर्चा नहीं करते. ज्ञानेश्वर, एकनाथ, आदि शंकराचार्य को ब्राह्मण होते हुए भी जातिवाद झेलना पड़ा उसकी चर्चा नहीं करते. सिद्ध केवल यह करना है कि केवल दलितों को ही कष्ट हुआ.  

निर्बल का है नहीं जगत में कहीं ठिकाना. इसी प्रकार निर्धन का भी है. जाति से भी बड़ा कष्ट है निर्धन होना. इस माया के तीन नाम - परसु, परसा, परसराम. यहाँ माया की कोई जाति नहीं है. माया (धन-संपत्ति) है तो फिर परसराम है अन्यथा परसु.

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    Author - Archit

    लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II
    ​

    ज्योतिष के विषय से मैंने इस वेबसाइट पर लिखना शुरू किया था परंतु ज्योतिष, धर्म और समाज को अलग अलग कर के देख पाना बड़ा कठिन है. शनैः शनैः मेरी यह धारणा प्रबल होती जा रही है कि जो भी संसार में हो चुका है, हो रहा है अथवा होने वाला है वह सब ईश्वर के ही अधीन है अथवा पूर्वनियोजित है. लिखना तो मुझे बाल्यकाल से ही बहुत पसंद था परंतु कभी गंभीरता से नहीं लिया. कविताएं लिखी, कहानियां लिखी, निबंध लिखे परंतु शायद ही कभी प्रकाशन के लिए भेजा. मेरी कविताएं और निबंध (जिनका संकलन आज न जाने कहाँ हैं) जिसने भी देखे, प्रशंसा ही की. यह सब ईश्वर की कृपा ही थी. धार्मिक क्षेत्र में मेरी रुचि सदा से ही रही है परंतु पुत्र होने के बाद थोड़ा रुझान अधिक हुआ है. ना जाने कब ईश्वर ने प्रेरणा दी और मैंने इस पर लिखना शुरू कर दिया.

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