आज फादर्स डे (Father's Day) है. पिता के प्रति भारत के लोगों के मन में कितनी श्रद्धा और गौरव है इसका इसी बात से अनुमान लगाया जा सकता है कि बहुत से लोग तो केवल इसी बात पर किसी से भी भिड़ जाने में संकोच नहीं करते कि किसी ने, "तेरे बाप का है क्या", ऐसा कह दिया. भारतवर्ष में बहुत सी लड़ाइयाँ (सड़क पर होने वाली) केवल "बाप" शब्द के प्रयोग से शुरू होती है. कई लोगों को जब रौब मारने को कुछ नहीं सूझता तो वे कह देते हैं, "यदि फलां काम नहीं किया तो मैं भी अपने बाप की औलाद नहीं". यद्यपि यह अंग्रेजी सभ्य समाज के लोग नहीं बोलते परन्तु इस बात से समाज में पिता का क्या स्थान है इस बात का अनुमान तो लगता ही है. जिन दिनों मैं इंदौर में था एक सज्जन अपने विषय में कहा करते थे, "जब तक मैं ठीक हूँ तब तक ठीक हूँ, एक बार बिगड़ गया तो अपने बाप से भी नहीं संभलता". कहने का भाव यह कि साधारणतः कोई व्यक्ति यदि किसी से दब सकता है तो अपने पिता से. पिता का एक रौब होता है और यह व्यक्ति तो अपने पिता से भी नहीं दबेगा अर्थात् यह जताना चाहता है कि यह किसी से नहीं दबेगा. पुत्री हो अथवा पुत्र अपने पिता पर सभी को गर्व होता है. प्राचीन काल में तो बहुत से लोग अपना परिचय अपने पिता के नाम के साथ दिया करते थे और कई बार तो पिता के नाम से आया नाम उनके वास्तविक नाम से अधिक या उसके बराबर लोकप्रिय हो जाता था. जैसे द्रुपद की पुत्री द्रौपदी, जनक की पुत्री जानकी, वासुदेव अर्थात् वसुदेव के पुत्र, चाणक्य अर्थात् चणक के पुत्र, पाण्डव अर्थात् पाण्डु के पुत्र, आदि. कुछ राज्यों में तो अब भी लोग अपने नाम के बाद पिता का नाम बड़े गर्व से लगाते हैं. मेरे दादाजी के अंतिम कुछ महीनों में मैंने अपने पिता को उनके पिता की बड़ी निष्ठा और लगन से सेवा करते देखा. और केवल अपने पिताजी को ही नहीं, अन्य भी बहुत से लोगों के विषय में देखा-सुना है जिन्होंने उनके पिता की बहुत सेवा की और कर रहे हैं. कुछ परिवारों में तो अब भी पिता के आगे कोई चूं तक नहीं कर पाता (पिता भले कुछ कह ले). उस पर भी मनोरंजक बात यह कि पहले के पिता अपने बच्चों को खूब प्रताड़ित करते थे. खूब खरी खोटी सुनाते थे परन्तु पुत्र सब सुनता था. आज पिता बच्चों को खूब प्रेम करता है, अच्छे से अच्छा देने का प्रयास करता है परन्तु पुत्र (सभी नहीं परन्तु कई) अपने पिता को यथोचित सम्मान नहीं देते. उनकी बुराई करते हैं और उनसे क्लेश भी करते हैं. हो सकता है इसी लिए गरुड़ पुराण में ताड़ना को एक गुण कहा गया हो. समय के साथ बहुत कुछ बदल रहा है. जब 'विश्वनाथन' अपने ही नाम को छोटा कर के स्वयं को 'विशि' कहलवा रहे हैं तो पिता का नाम कहाँ लगाएंगे भला. ज्योतिष पर कभी चर्चा होती है तो प्रायः यह सुनने में आता है कि अमुक व्यक्ति की अपने पिता से नहीं बनती और वह बनाना भी नहीं चाहते. उपाय में भगवान की पूजा तो कर लेंगे परन्तु पिता का सम्मान न हो सकेगा. जो भी हो. इतिहास सभी प्रकार के उदाहरणों से भरा पड़ा है. पिता पुत्र/पुत्री के अच्छे सम्बन्ध आज भी कई परिवारों में देखने को मिलते हैं. अच्छा और बुरा कल भी था आज भी है और कल भी रहेगा. यदि हम अपने पिता को यथोचित सम्मान दे सके तो उतना ही बहुत. |
Author - Architलाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II Archives
November 2020
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