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​अष्टावक्र गीता - एक चर्चा - भाग १

4/9/2016

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​श्रवण की अपने मित्र राजगोपाल से बड़ी बनती थी. राजगोपाल का अधिकांश समय धर्मग्रंथों के अध्ययन में व्यतीत होता था और श्रवण को धार्मिक चर्चाओं में बड़ा रस आता था. संतों के प्रवचन तो वह टेलीविज़न (दूरदर्शन) पर सुन ही लेता था परंतु संत कब बोलेंगे इस पर उसका अधिकार तो था नहीं. न उनसे कभी भेंट ही हो पाती थी. राजगोपाल से तो वह किसी भी विषय पर कभी भी​ चर्चा छेड़ देता था.
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राजगोपाल कोई ३० वर्ष का नवयुवक था जो एक मध्यम वर्गीय परिवार से आता था. विवाह हुआ नहीं था परंतु माता पिता का दायित्व तो था ही. उनके लिये नौकरी कर के धन अर्जित करता था और अतिरिक्त समय में भगवान का नाम लेना ही उसका काम था. इसी में उसे संतोष मिलता था.​ उस दिन वह अष्टावक्र गीता पढ़ रहा था तभी श्रवण ने प्रवेश किया.

​"क्या पढ़ रहे हो भाई राजगोपाल?".
 
"अष्टावक्र गीता".
 
"यह क्या है?"
 
"अष्टावक्र ऋषि के विषय में तो तुम जानते ही हो न. उनके द्वारा राजा जनक को दिया हुआ ज्ञान ही अष्टावक्र गीता कहलाता है".

"यह वही अष्टावक्र हैं न जिनको उनके पिता ने श्राप दे दिया था".

"सही कहा. एक दिन अष्टावक्र के पिता कहोड़ ऋषि वेदमंत्रों का पाठ कर रहे थे. अष्टावक्र उस समय गर्भ में थे. उन्होंने अपने पिता से कहा, 'पिताजी बड़ा यत्न करते हो परंतु भली प्रकार आपसे यह होता नहीं है'. पिता को बड़ा क्रोध आया. लगा बड़ा उद्दंड बालक है. अभी गर्भ में है तभी ऐसा टेढ़ा बोलता है बाहर आएगा तो क्या करेगा. उन्होंने अपने बालक को श्राप दिया - 'तेरे आठ अंग टेढ़े होंगे'. इसीलिए उनका नाम अष्टावक्र पड़ा. मैंने कहीं सुना है स्वामी विवेकानंद के जीवन पर भी इस संवाद ने बहुत गहरी छाप छोड़ी थी".
 
"फिर यह तो बहुत ही अनुपम ग्रन्थ हुआ. जितना मैंने सुना है, राजा जनक भी महायोगी थे. भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन का परम आनंददायी संवाद (श्रीमद्भगवद्गीता) तो मैंने सुना है परंतु यह कभी नहीं सुना. मेरे मन में इसे सुनने की बड़ी इच्छा होने लगी है. तुमसे अच्छा इसे कहने वाला मेरे लिए और कौन होगा".
 
राजगोपाल ने कहा 
राजा जनक की तो भगवान कृष्ण ने गीता में भी प्रशंसा की है. उन्हीं योगी महाराज जनक ने अष्टावक्र ऋषि से पूछा, "हे प्रभो! कैसे ज्ञान और वैराग्य प्राप्त होता है. मुक्ति कैसे संभव होती है. मुझे यह सब आप कहिये".
 
(राजगोपाल बीच बीच में अपने विचार भी रखता चलता था) प्राचीन ग्रंथों में दैत्यों को छोड़ दें तो प्रायः लोग ईश्वर भक्ति ही वरदान रूप में मांग लिया करते थे. बहुत से लोग ईश्वर को अपनी संतान के रूप में अवतरित होने की अभिलाषा भी व्यक्त करते थे. 
 
श्रवण ने बीच में ही कहा
"आज जनसंख्या इतनी बढ़ गयी है कि मनुष्य को लगता है कि कम से कम एक एक घर ही मांग ले. सबसे बड़ी समस्या तो घर की ही है. जिसके पास नहीं है उसके पास एक भी घर खरीदने का सामर्थ्य नहीं है और जिसके पास सामर्थ्य है वह घरों का व्यापार कर रहा है. माता पिता भी बच्चों को पैसा कमाने की शिक्षा दे रहे हैं. मूल्यों का जीवन में अब कोई मूल्य नहीं रह गया है. धन ही परमधन है".
 
राजगोपाल एक क्षण को मौन हो गया. उसके पास ही कहाँ कोई घर था. उसकी अपनी तो इतनी इच्छा नहीं थी परंतु माता पिता बहुत चाहते थे कि बेटे का परिश्रम से अर्जित धन यूं घर का किराया भरने में न ख़राब हो.
 
श्रवण को राजगोपाल का यह बीच बीच में मौन हो जाने का स्वभाव पता था. अतः वह प्रतीक्षा कर लेता था जब तक कि राजगोपाल स्वयं कुछ न बोले.
 
थोड़ी देर बाद राजगोपाल स्वयं ही बोला
​राजा जनक के इन गूढ़ प्रश्नों को सुन कर अष्टावक्रजी बोले, 'प्रिय जनक! यदि मुक्ति की इच्छा रखते हो तो विषयों का त्याग कर दो. इन्द्रियों से ऊपर उठो. विषयों में रस लेना विष लेने के समान जानो. मुक्ति चाहने वाले को सत्य, क्षमा, संतोष आदि गुणों को अमृत समझ कर ग्रहण करना चाहिए और विषयों की ओर आसक्त नहीं होना चाहिए.
 
इन पंचतत्वों से तुम्हारा शरीर बना अवश्य है परंतु तुम यह शरीर नहीं हो. इस शरीर में तो तुम कुछ समय बिताने को आये हो. सदा के लिए नहीं. स्वयं को शरीर मत समझो अपितु एक आत्मा समझो. जिस क्षण अपने को आत्मा रूप में देखने लगोगे उसी क्षण मुक्त हो जाओगे.
 
तुम इस वर्ण व्यवस्था (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) का भाग नहीं हो और न ही तुम किसी आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास) का भाग हो. एक आत्मा कहाँ कुछ हो सकती है. तुम्हारा वास्तविक आकार तो कोई है ही नहीं. तुम तो निराकार हो, निःसङ्गी हो अतः तुम्हें दुःखी होने की कभी कोई आवश्यकता ही नहीं है.
 
श्रवण को सहसा ही कुछ स्मरण हो आया,
​"भाई राजगोपाल, ऐसी ही बात तुमने बताया था कि शंकराचार्य ने भी कही है.

सत्संगत्वे निस्संगत्वं, निस्संगत्वे निर्मोहत्वं।
निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं, निश्चलतत्त्वे जीवनमुक्तिः॥
​
पहले सत्संग करो और फिर उस सत्संग को भी छोड़ दो. निर्मोही हो जाओ. एक बार निर्मोही हो गए तो फिर निश्चल और इसी निश्चलतत्त्व से फिर मुक्ति हो जाएगी".
 
राजगोपाल ने आकाश की ओर हाथ बढ़ाकर निराकार को नमस्कार किया और बोला, "भगवान कृष्ण ने भी गीता में एकांत में रहने की इच्छा को अच्छा बताया है. परंतु यह सब कहना बहुत सरल है मित्र और करना अति कठिन. विशेषकर क्रोध और अहम् तो बार बार नियंत्रण से बाहर हो जाते हैं.
 
अष्टावक्रजी बार बार समझा रहे हैं कि तुम न तो कर्ता हो न भोक्ता. धर्म - अधर्म, सुख - दुःख सब मन के क्रियाकलाप हैं. तुम तो केवल दृष्टा हो परंतु मन बार बार उलझ जाता है. मैंने (राजगोपाल ने) एक पुस्तक पढ़ी थी स्वामी राम की. स्वामी राम ने अपने गुरु से पूछा कि माया क्या है.

​गुरु ने एक पेड़ को कस कर पकड़ लिया और स्वामी राम से बोले यह पेड़ तो मुझे छोड़ता ही नहीं. मुझे बचाओ. स्वामी राम बोले कि पेड़ को छोड़ दो. पेड़ ने तुम्हें थोड़े ही पकड़ा है. तुम पेड़ को धरे बैठे हो और कहते हो पेड़ छोड़ता नहीं. गुरु बोले बस यही माया है. उसने तुम्हें थोड़े ही पकड़ा है.

 
अष्टावक्रजी जनक जी से कहते हैं कि तुम्हारे अहंकार के फलस्वरूप तुम्हें बार बार यह लगने लगता है कि यह सब तुम कर रहे हो परंतु तुम तो कर्ता हो ही नहीं. अतः यह समझ लो कि तुम कुछ कर ही नहीं रहे और न ही कुछ भोग रहे हो. स्वयं को विशुद्ध होने का बोध कराओ इससे तुम्हारा अज्ञान जाता रहेगा. इसके अतिरिक्त सुखी होने का और कोई उपाय नहीं है.
 
मात्र इतनी बात है कि स्वयं को जैसा समझोगे वैसे हो जाओगे. मुक्त मानोगे तो मुक्त रहोगे और यदि बंदी मानोगे तो फिर बंदी ही रहोगे. वास्तव में तो तुम आत्मा ही हो. सांसारिकता के भ्रमजाल से बाहर आओ. तुम्हारी पहचान तुम्हारा शरीर नहीं है अतः अपने शरीर से मोह अथवा इसका अभिमान मत करो. स्वयं को ज्ञानरूप जान कर सुखी रहो.
 
मैं तुम्हें ज्ञान दूं ऐसी तुम्हें कोई आवश्यकता ही नहीं है. तुम तो पहले से ही निष्क्रिय, निःसंग और स्वप्रकाशित हो. तुम्हें केवल अपने मन को समाधि में लगाना है. अतः अपने मन को छोटा न करो. साकार को परमसत्य न जानो. वह नित्य हो ऐसा आवश्यक नहीं. निराकार ही नित्य है. परमात्मा सभी जगह है. परमात्मा शरीर के भीतर भी है और बाहर भी. परमात्मा तो सर्वव्यापी है.
 
इस प्रकार अष्टावक्र गीता का पहला अध्याय मैंने तुमसे कहा". राजगोपाल ऐसा कहकर श्रवण की ओर देखने लगा.

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    Author - Archit

    लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II
    ​

    ज्योतिष के विषय से मैंने इस वेबसाइट पर लिखना शुरू किया था परंतु ज्योतिष, धर्म और समाज को अलग अलग कर के देख पाना बड़ा कठिन है. शनैः शनैः मेरी यह धारणा प्रबल होती जा रही है कि जो भी संसार में हो चुका है, हो रहा है अथवा होने वाला है वह सब ईश्वर के ही अधीन है अथवा पूर्वनियोजित है. लिखना तो मुझे बाल्यकाल से ही बहुत पसंद था परंतु कभी गंभीरता से नहीं लिया. कविताएं लिखी, कहानियां लिखी, निबंध लिखे परंतु शायद ही कभी प्रकाशन के लिए भेजा. मेरी कविताएं और निबंध (जिनका संकलन आज न जाने कहाँ हैं) जिसने भी देखे, प्रशंसा ही की. यह सब ईश्वर की कृपा ही थी. धार्मिक क्षेत्र में मेरी रुचि सदा से ही रही है परंतु पुत्र होने के बाद थोड़ा रुझान अधिक हुआ है. ना जाने कब ईश्वर ने प्रेरणा दी और मैंने इस पर लिखना शुरू कर दिया.

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