यह जो तुम मेरे सुन्दर शरीर पर नैन गड़ाए जाते हो कभी इस शरीर से थोड़ा आगे देखने का प्रयास किया है कभी सोचा है कि जो दुःख परेशानी तुम नित्य पाते हो उसका उपभोग इस सुंदरी ने तुमसे अधिक ही किया है विश्वास नहीं होता? एक बार अपने घर की लड़की को देखो सोचो कितनी बार तुमने उस पर कितने कामों में रोक लगाई सही या ग़लत इस सबको थोड़ी देर के लिए एक ओर करो पर क्या तुम्हारी रोकटोक से उसकी मनःस्थिति नहीं गड़बड़ाई बोलो क्या वह पूरी तरह रोगमुक्त है, क्या वह दोषमुक्त है नहीं न! इसी प्रकार मैं भी दोषों से परिपूर्ण हूँ, मैं भी त्रस्त हूँ पर तुम इस शरीर को देखते हो तो इसे ही सत्य मान लेते हो न जाने कैसी कैसी कल्पनाओं को अपने मन में स्थान देते हो किसी और की देह को पाने की लालसा से मन को मुक्त करो शरीर से ऊपर उठ कर देखो, हम सब में कोई भेद है ही नहीं तुम्हें समझा रही हूँ क्योंकि मैंने 'अर्चित' के लेख में यह पढ़ा था अष्टावक्र जनक संवाद पर लिखते हुए उसने कहीं लिखा था यह शरीर सत्य है ही नहीं, सत्य तो केवल आत्मा है, परमात्मा है |
Author - Architलाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II Archives
November 2020
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