श्रवण एक बार फिर राजगोपाल के सामने था. इस बार एक विचित्र सी उलझन ले कर. श्रवण कह रहा था, "भाई राजगोपाल! पिछले कुछ दिनों से बड़ी ही विचित्र स्थिति खड़ी हो गयी है. मुझे अपने में दुनिया भर के दोष दिखाई देने लगे हैं. कभी पुरानी बातों का स्मरण हो आता है और पछतावा होता है कि मैं पहले कैसा मूर्ख था. कई बार किसी पर जो मैंने कभी क्रोध किया था वो सोच कर दुःख होने लगता है. क्या करूँ कुछ समझ नहीं आता. मेरे मन को अब तुम्हारे उत्तम वचनों से ही कुछ शांति मिल सकती है." राजगोपाल ने कहा, "श्रवण तुम जो यह सोचते हो कि तुमने किया वही सारी मुसीबत की जड़ है. और मैं तुम्हें ग़लत नहीं मानता. यदि यह सब इतना सरल होता तो अर्जुन जैसा धनुर्धर भगवान कृष्ण के सान्निद्ध्य में रहते हुए भी विचलित कैसे होता. भगवान कृष्ण ने भी कहा है कि इन्द्रियाँ इतनी वेगवान है कि जो उन्हें वश में करने का प्रयास करता है, इन्द्रियाँ उन्हीं को वश में कर लेती हैं." श्रवण चुपचाप सुन रहा था. राजगोपाल ने कहना जारी रखा, "क्या किया और क्या नहीं किया इसके द्वंद्व में पड़े तो मुक्ति संभव नहीं. अष्टावक्रजी ने जनक से कहा कि जो व्यक्ति "किया" और "नहीं किया" में नहीं पड़ता वह ही परमगति को प्राप्त होता है. पिछले अध्यायों में केवल दृष्टा होने की बात जो कही गयी थी वह यूं ही नहीं थी. परन्तु हमारा अहम् हमें दृष्टा होने नहीं देता". श्रवण बोला, "बात तो सही है परन्तु क्या करूँ भाई. बाद में मैं खेद करता हूँ परन्तु बाद में क्या होता है. वैसे एक बात तो सही है, जीवन है तभी तक सब कुछ है. एक बार यह जीवन गया तो फिर अगले जन्म में कहाँ होंगे क्या पता. यह सब तो याद भी नहीं रहेगा. बड़ी से बड़ी भूल भी सब धूल में मिल जाएगी. यही सोच कर अपने मन को ढाढस बंधाता रहता हूँ." दोनों कुछ देर शांत रहे. ऐसा प्रायः हो जाता था. बातचीत के बीच दोनों कभी कभी शांत हो जाते थे. ऐसा भी नहीं कि कोई कारण हो. बस वे शांत हो जाते थे और यही वह क्षण थे जब श्रवण को अच्छा या बुरा कुछ नहीं लगता था. राजगोपाल ने शांति भंग करते हुए कहा, "व्यक्ति को इस जीवन में अनेक प्रकार की भूख है. कोई अधिक से अधिक ज्ञान पाना चाहता है, कोई सुख, कोई आयु तो कोई कुछ और. परन्तु धन्य हैं ऐसे लोग जिन्हें कुछ नहीं चाहिए. जिन्होंने सत्य को जान लिया है वही धन्य हैं." "सत्य को जान तो मैं बार बार लेता हूँ भाई लेकिन फिर भी मुक्त तो नहीं हो पता. बार बार उलझन में फँस ही जाता हूँ." श्रवण ने बीच में ही राजगोपाल को टोका. "सत्य के बारे में पढ़ना अथवा सुनना और सत्य को जान लेना, इन दोनों में बहुत अंतर है श्रवण. अपने विषय में सत्य कहूँ तो मैं भी अध्ययन तो करता हूँ किन्तु मुक्त नहीं हुआ. अभी भी मुझे यदा कदा क्रोध आ ही जाता है, मोह हो ही जाता है और दुःख भी होता है. मन कहीं न कहीं बह जाना ही चाहता है कभी कभी परन्तु ठीक है जैसा ईश्वर चाहता है होने दो." "राजगोपाल, तुम्हारी यही सरलता मुझे अच्छी लगती है." राजगोपाल ने आगे कहा, "यह सारा जगत त्रिविध तापों से ग्रस्त है. जो भी व्यक्ति यह जान लेता है कि इस सब में कोई सार नहीं वही शांति प्राप्त कर पाता है अन्यथा किसी न किसी झमेले में फँस कर अपने को कष्ट देता रहता है." श्रवण बोला, "कभी कभी भगवान राम के विषय में सोचता हूँ तो लगता है उन्होंने कितने कष्ट उठाये परन्तु उनका आत्मबल कितना अधिक था कि उनको कुछ लगा ही नहीं. भक्तराज प्रह्लाद को देखो. उनके तो अपने पिता ही उनके शत्रु बन बैठे परन्तु फिर भी नारायण का नाम उनके ह्रदय बना ही रहा." "ऐसा कोई समय नहीं रहा जब मनुष्य द्वंद्वों से ऊपर उठ सका हो. सुख और दुःख तो हर युग में रहे हैं. जिस दिन यथार्थ को समझा फिर व्यक्ति न केवल स्वयं पार हो जाता है बल्कि औरों को भी पार ले जाने में सक्षम हो जाता है." वासना एव संसार इति सर्व विमुञ्च ताः । तत्त्यागो वासनात्यागात्स्थितिरद्य यथा तथा ॥ |
Author - Architलाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II Archives
November 2020
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