जिस दिन मनोहर का विवाह हुआ उसी दिन से बड़े बूढ़ों ने 'दूधो नहाओ, पूतो फलो' के आशीष देने शुरू कर दिए. जब कोई दादी अम्मा उसे कहती, "और बेटा, अब मुन्ने का दर्शन कब करा रहे हो?", तो बेचारे को जवाब न सूझता. मनोहर को यदि किसी बात से सर्वाधिक भय था तो उस उत्तरदायित्व से जो बच्चे के साथ आता है. उसने जैसे तैसे सावधानीपूर्वक एक वर्ष निकाल दिया. परिवार दो का था, दो का ही रहा. एक वर्ष बाद परिस्थितियां बदलने लगीं. प्रतिदिन कम से कम एक बार तो उसे कोई पिता बनने की सलाह दे ही जाता. कोई कहता, "भाई, ३० से पहले कोई निर्णय ले ले, नहीं तो समस्या हो जाएगी. फिर संतान तगड़ी नहीं होती". कोई कहता, "औरतों को अधिक वय में गर्भ धारण करवाना उचित नहीं होता". कुछ अन्य समझदार लोग उसे आर्थिक दृष्टिकोण समझाते, "अभी विचार कर लोगे तो नौकरी खत्म होने से पहले बच्चे की पढाई लिखाई का बोझ न पड़ेगा. और फिर बच्चे का विवाह भी तो करना है".
यहां मनोहर का ही विवाह हुए एक वर्ष नहीं हुआ था और लोग उसे उसके बच्चे का विवाह भी समझाने लगे थे. परन्तु मनोहर को एक यही समस्या नहीं थी. लोगों पीठ पीछे कुछ बातें भी करने लगे थे. कभी कभी तो इशारे में कुछ लोग सामने से भी कह जाते कि कहीं मनोहर अथवा उसकी पत्नी में कोई शारीरिक कमी तो नहीं है जिस कारण बच्चा पैदा नहीं हो पा रहा. समय बीतता गया. विवाह को तीन वर्ष हो गए. मनोहर और उसकी पत्नी को अब यह सब सुनने की आदत हो चली थी. परन्तु मनोहर के माता पिता को यह सब सहन नहीं होता था कि लोग कहें उनकी संतान में कोई कमी है. और फिर उन्हें भी तो अपने पोते के दर्शन करने थे. समाज का दबाव व्यक्ति झेल लेता है परन्तु पारिवारिक दबाव कभी कभी थोड़ा कठिन हो जाता है. एक दिन मनोहर छत पर खाट डाले बैठा था कि उसके पिताजी आये. "मन्नू बेटा, विवाह हुए तीन वर्ष हो चले हैं अब कुछ विचार कर लो. लोग भी तरह तरह की बातें करने लगे हैं. चन्दर को देखो. तुम्हारे साथ ही शादी हुई थी उसकी और देखो, एक बच्चा होने के बाद वह अब दूसरे की तैयारी में हैं". "पिताजी, बच्चा पैदा करना कोई बड़ी बात नहीं, परन्तु उसे पालने कौन आएगा. हमारे कार्यालय में कई लोग ऐसे हैं जो पति पत्नी दोनों कार्यरत होने के कारण बच्चे को कहीं बाहर छोड़ देते हैं. ऐसे स्थान पर जहां पैसे लेकर बच्चे का ध्यान रखा जाता है." मनोहर बोला. "तो उसमें अनुचित क्या है. समय की जैसी मांग हो, व्यक्ति को वैसा आचरण करना पड़ता है". पिताजी ने पुनः समझाने का प्रयास किया. "मैं नहीं चाहता कि मेरे बच्चे को कोई पैसे ले कर पाले. ऐसे में उसे संस्कार क्या मिलेंगे. मैं उसे अपने संस्कार देना चाहता हूँ". पिताजी ने ब्रह्मास्त्र चलाया, "तो हम पाल लेंगे उसे, हमारे संस्कारों पर तो संदेह नहीं न तुझे". मनोहर ने उस समय कुछ न बोला और चुपचाप आकाश की ओर देखने लगा. मनोहर ने चूंकि स्वयं पर इस बात को लिया हुआ था अतः कोई उसकी पत्नी को व्यर्थ समझाता न था. ससुराल से भी कभी उसे सीधे सीधे तो कुछ न कहा जाता था परन्तु नाना नानी का सुख तो उन्हें भी प्राप्त करने की लालसा थी ही. वे दूरभाष (टेलीफ़ोन) के माध्यम से अपनी बेटी को प्रोत्साहित करने में लग गए. मन से सरला भी मुक्त जीवन जीने की आकांक्षा रखती थी परन्तु लगातार माता पिता और सास ससुर द्वारा की जा रही बच्चा पैदा करने की मांग के आगे उसे झुकना पड़ा. अंततः एक दिन सरला ने मनोहर से कहा कि वह मातृत्व का सुख प्राप्त करना चाहती हैं. मनोहर ने उसे समझाने का प्रयास किया, "तुम तो जानती हो हम एक पराये नगर में अकेले रहते हैं. बच्चे को कौन संभालेगा?" सरला बोली, "मैं सम्भालूँगी". कुछ दिनों तक तो मनोहर उसे टाल सका परन्तु सरला धीरे धीरे पक्का मन बनाने लगी थी सो मनोहर को झुकना पड़ा. आज विवाह को दस वर्ष हो गए हैं. मनोहर एक पुत्री और एक पुत्र का पिता है जो विद्यालय जाते हैं. दोनों पति पत्नी मिल कर लालन पालन कर रहे हैं. लोगों के मुंह पर ताले लग गए. दुर्भाग्य से मनोहर के माता पिता दोनों ही एक तीर्थ यात्रा पर जाते समय स्वर्ग सिधार गए. जिन अन्य सम्बन्धियों ने पालन पोषण के दावे किये थे वो सब आशीर्वाद दे कर चले गए. जिस उत्तरदायित्व से मनोहर सदा से बचता आया था, अंततः वह उसके गले पड़ ही गया. |
Author - Architलाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II Archives
November 2020
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