हिन्दू त्यौहारों और पर्वों में व्रत तथा दान का अतिशय महत्व है. यूँ तो व्रत एक बड़ा शब्द है परन्तु कुछ लोग उसे भूखे रहने से जोड़ कर देखते हैं. जो भी हो, अपनी लालसा (भोजन, धन, काम आदि की) पर नियंत्रण रखते हुए सदाचार करना हिन्दू धर्म के प्रमुख उपदेशों में से एक है परन्तु बहुत से रसिकों को धर्म के नाम पर भूखे रहना तथा दान करना भाता नहीं. यह भी एक कारण है कि आजकल जैसे ही कोई हिन्दू त्यौहार अथवा पर्व आने लगे वैसे ही उसकी आलोचना करने वाले जागरूक हो जाते हैं. गणपति विसर्जन की आलोचना अभी समाप्त भी नहीं हुई थी कि लोग श्राद्ध पर टूट पड़े. फेसबुक पर इतने कौए मैंने कभी भी न देखे थे जितने इस वर्ष देखे. श्राद्धपक्ष समाप्त होगा तो नवरात्री के व्रतों को लेकर उपहास करेंगे. फिर दशहरा, दीपावली आयेंगे. ऐसे लोगों को नव वर्ष, अथवा भारतीय खिलाड़ियों की जीत के लिए पटाखे फोड़ना अच्छा लगता है परन्तु दीवाली का भरपूर विरोध करेंगे. अपने मित्र के मुख पर केक मलकर उस पूरे केक का सत्यानाश कर देंगे परन्तु शिवलिंग पर दूध चढ़ाने वालों को देख गरीबों के लिए चिंता होगी. यह वही लोग हैं जिन्हें अपनी लालसा पर नियंत्रण नहीं है. यह बात सही है कि गणपति विसर्जन, दीपावली, होली आदि के लिए कुछ नियम होने चाहिए. कई बार त्यौहार के नाम पर लोगों को समस्या होती है तो इसके लिए संगठनों को सरकार से व्यवस्था की मांग करनी चाहिए और सरकार को भी चाहिए कि इन विषयों की ओर स्वतः ध्यान दे. उदाहरण के लिए - सड़क पर पटाखे फोड़ने की अपेक्षा कोई सुरक्षित स्थान दिया जाये, गणपति की मूर्ति कैसी हो इस पर तो चर्चा हो ही, साथ ही तालाब पर भवन न खड़े हों इस पर भी ध्यान दिया जाये. तालाब तो तालाब, मकान बनाने के लिए लोग बरसाती नदियों तक को नहीं छोड़ रहे हैं जिस कारण बाढ़ आती है. यह विषय भी महत्त्वपूर्ण हैं. एक पौराणिक कथा के अनुसार जब संसार की परिक्रमा करने की प्रतियोगिता हुई तो गणेशजी ने केवल अपने पिता की परिक्रमा करी और सभी देवताओं को परास्त कर प्रथम पूजा के अधिकारी बने. इस कहानी से एक शिक्षा यह भी मिलती है कि संसार भर में भटकने से अच्छा अपने घर के बड़ों की सेवा करो. उनकी सेवा करने से तथा उनमें श्रद्धा रखने से स्वतः सम्मानित हो जाओगे. हिन्दू धर्म में जीवित माता पिता की सेवा को कहीं पर मना नहीं किया गया. श्रवण कुमार, परशुराम तथा भगवान राम जैसे व्यक्तियों के उदाहरण सर्वविदित हैं ही. जीवित रहते तो सेवा करो और उनके देह त्याग के पश्चात उनके नाम से किसी का भला भी करो. यही श्राद्ध है. इसका अर्थ यह नहीं कि सामर्थ्य से अधिक बाँटते फिरो. जितना कर सको उतना करो. श्राद्ध के लिए क्या ठीक है क्या नहीं, यह पुराणों में भली भाँति वर्णित है. स्कन्द पुराण के अनुसार जो व्यक्ति मृत व्यक्ति का तो श्राद्ध करता है परन्तु जिसका भरण पोषण करना चाहिए उसे कष्ट देता है तो वह श्राद्ध ऐसे व्यक्ति को दुःख ही देता है. श्राद्ध में सबसे महत्त्वपूर्ण है भावना. देने का मन न हो और केवल रीति निभाने को श्राद्ध किया जाये तो सार्थक कैसे होगा. अपने घर कोई प्रेमपूर्वक भोजन कर जाये तो इससे संतुष्टिजनक और क्या हो सकता है. पितरों को वह भोजन जाये न जाये परन्तु इस बहाने अपने द्वारा समय समय पर किसी का यथोचित् सत्कार तो हो जाता है. अपने हाथ से दिया भोजन का भाग जब कोई सज्जन, पशु, पक्षी ग्रहण करता है तो वह भाव शब्दों में नहीं बताया जा सकता. ध्यान देने वाली बात बस इतनी है कि श्राद्ध में दान लेने वाला सुपात्र हो, और दान देने वाला धर्मात्मा हो तो दान सार्थक होता है. |
Author - Architलाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II Archives
November 2020
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