देवी सरस्वती बुद्धि और विद्या की देवी हैं. पुराणों में कहा गया है कि सरस्वती की आराधना से मूर्ख भी पंडित हो जाता है. याज्ञवल्क्य ऋषि की स्मरणशक्ति जब खो गयी (गुरु के श्राप के प्रभाव से) तो उन्होंने भगवान सूर्य के कहने पर माता सरस्वती की ही स्तुति की थी. कहते हैं अनंत नाग, ब्रह्माजी, महर्षि वाल्मीकि और व्यास आदि ने भी माता सरस्वती की स्तुति कर परम पद की प्राप्ति करी थी. सरस्वती माता के प्राकट्य के सम्बन्ध में कोई एक कथा (अथवा मत) नहीं है. स्कन्द पुराण में सरस्वती को ब्रह्मा की कन्या बताया गया है. कहीं उन्हें ब्रह्मा के मुखकमल से उत्पन्न बताया गया है तो कहीं (ब्रह्मवैवर्त पुराण) परमात्मा रुपी भगवान श्री कृष्ण के मुख से प्रकट होता दिखाया गया है. त्रिदेवियों में से एक देवी सरस्वती हैं. जो पाँच देवियाँ "प्रकृति" कही जाती है उनमें से एक सरस्वती भी है. इन्हें ही वेदमाता और गायत्री भी बताया गया है. कहीं कहीं यह भी पढ़ने में आता है कि गायत्री और सरस्वती दो भिन्न देवियाँ है. देवी सरस्वती के स्वरुप के बारे में कहें तो हाथ में वीणा लिए हुए वह परम सुंदरी माता शुक्लवर्णा हैं, उज्जवल वस्त्र धारण किये हुए हैं, हंस उनका वाहन है और कमल पर विराजमान उन देवी का मुखमंडल मंद मुस्कान से सुशोभित है. किसी किसी चित्र में उनके निकट एक बिना पंख फैलाये मयूर भी दिखाया जाता है. एक कथा के अनुसार गंगा, सरस्वती और लक्ष्मी तीनों भगवान नारायण की पत्नियाँ थीं. नारायण पर गंगा को प्रेमपूर्ण कटाक्ष करते देख सरस्वती को ईर्ष्याजनित कोप हुआ जिसके फलस्वरूप दोनों देवियों ने एक दूसरे से कटुभाषण किया एवं परस्पर श्रापों का आदान प्रदान किया. देवी लक्ष्मी ने मध्यस्थता की तो उन्हें भी श्राप मिला. ब्रह्मवैवर्त पुराण में कही गयीं स्तुतियाँ तो बहुत सुन्दर हैं परंतु कुछ (या कहें कि कई) कथाएँ अथवा प्रसंग ऐसे हैं जो साधारण बुद्धि वाला होने के कारण मुझे ठीक ठीक समझ में नहीं आते. जिन सरस्वती के प्रभाव से कुम्भकर्ण कुछ और ही वरदान माँग बैठा, जिनके प्रभाव से कैकयी की बुद्धि फिर गयी और राम को वनवास जाना पड़ा, ऐसी, देवताओं के संकट में रक्षा करने वाली देवी सरस्वती, जो स्वयं बुद्धि और वाणी की अधिष्ठात्री देवी हैं, कैसे ईर्ष्या के वश हो माँ गंगा से झगड़ने लगी. गंगा माता जिनके स्मरण मात्र से मन शांत हो उठता है कैसे कोप कर उठी? जिन भगवान नारायण की महिमा गाते वेद पुराण थकते नहीं, जिनके नाम मात्र के पुकारने से अजामिल का उद्धार हो गया, उनके निकट रह कर भी देवियों में ऐसे विकार कैसे शेष रह गए? नारायण के सान्निध्य में रहकर भी ऐसे दोष किसी में रह सकते हैं भला? पुराण अतिप्राचीन हैं. हो सकता है समय के साथ पुराणों में कुछ परिवर्तन हुआ हो. कई श्लोक, प्रसंग, कथा को रोचक बनाने के लिए कथा सुनाने वालों ने बाद में डाले हों. कई बार पुराणों में परस्पर विरोधाभास मिलता है. महाभारत में भी कई प्रसंगों में विरोधाभास स्पष्ट दीखता है. विशेषकर कर्ण के विषय में. परन्तु स्वामी रामदास आदि संतों ने कहा है कि व्यर्थ की उलझनों को छोड़ो और आगे बढ़ते चलो. जो ग्रहण करने लायक लगे ग्रहण करो और जो ऐसा न लगे उसे वहीं छोड़ दो. तो, मूल विषय पर आते हैं - परमात्मा रूपी श्री कृष्ण ने सरस्वती को वरदान दिया कि माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को सरस्वती पूजा का दिन होगा. इसे ही वसंत पंचमी के नाम से भी जाना जाता है. सरस्वती पूजन के लिए किसी के पास यदि मूर्ति अथवा चित्र न हो तो पुस्तक अथवा कलम को ही देवी के तुल्य मानकर उसकी पूजा कर लेता है. कोई संगीतकार हो तो अपने वाद्य यन्त्र को रखकर अथवा कोई कलाकार हो तो जिस वस्तु के माध्यम से वह अपनी कला को जन्म देता है उसे माता सरस्वती के समान समझकर पूज लेता है. मन में सच्ची श्रद्धा हो तो प्रतीक किसी को भी बनाया जा सकता है. सरस्वती महाभागे विद्ये कमललोचने। विद्यारूपे विशालाक्षी विद्याम् देहि नमोsस्तुते॥ |
Author - Architलाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II Archives
November 2020
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