नवरात्रि के पावन अवसर पर व्रत और उपवास को ले कर भाँति भाँति के विचार सुनने को मिलते हैं. ऐसा ही एक विचार मैंने आज फेसबुक पर देखा जिस पर ३,००० से अधिक लाइक्स (likes), और १०,००० से अधिक शेयर्स (shares) थे. आश्चर्य की बात है लोगों ने इसकी बड़ी सराहना भी की है. इस सन्देश लिखने वाले के अनुसार - "उपवास करें - खाने का नहीं - गन्दी सोच, गन्दी नियत, गंदे विचारों का" परंतु हिन्दू तो प्रायः उपवास करते ही नहीं? कैसे/क्यों? उसके लिए पहले व्रत और उपवास के भेद को समझना होगा. उपवास का अर्थ है - दिन भर या रात-दिन भोजन न करना अथवा भूखे रहना. कई लोग समझते हैं कि उपवास का केवल धार्मिक अर्थ हो सकता है परंतु यह किसी भी कारण हो सकता है. उदहारण के लिए अन्न के अभाव से, व्यस्तता के कारण, अथवा गरीबी (निर्धन होने) से. कोई यदि अनशन पर बैठा है तो उसे भी उपवास पर ही समझ सकते हैं. उपवास करने के लिए धार्मिक होना आवश्यक नहीं और किसी भी प्रकार के उपवास से कोई धार्मिक लाभ होगा ऐसा भी आवश्यक नहीं. हिन्दू तो व्रत में विश्वास करते हैं, मात्र उपवास में नहीं और व्रत किसी उद्देश्य के लिए होता है. यह भोजन पर नियंत्रण करने तक ही सीमित नहीं है. व्रत तो कुछ भी और किसी भी बात के लिए हो सकता है, जैसे सत्यव्रत (सच बोलने का व्रत), मौन व्रत (मौन रहने का व्रत), स्वदेशी व्रत, ब्रह्मचर्य व्रत आदि. किसी कारण व्रत के करने वाले का भोजन छूट सकता है परंतु यह आवश्यक नहीं कि व्रत में भोजन त्याग दिया जाए. व्रत का एक भाग अथवा प्रकार उपवास हो सकता है. या कहें कि व्रत करते करते उपवास हो सकता है परंतु व्रत का अर्थ उपवास नहीं होता. और अधिकांश व्रत के अवसरों पर भी संयमित भोजन का पालन करने को ही कहा है, भोजन त्यागने को नहीं. संयमित भोजन को इतना महत्व क्यों? कभी आपने क्षमता से अधिक भोजन किया है? क्या आपको कभी ऐसा नहीं लगा कि ज़्यादा खाया और आलस्य/निद्रा ने आ घेरा. मानसिक कार्य करने वालों के लिए तो बड़ी परेशानी खड़ी हो जाती है. जो अपना काम करते हैं वे तो आराम भी कर सकते हैं परंतु जो नौकरी में हैं, बेचारे भोजन पचाने के लिए अनारदाना, हिंगोली, जेलुसिल जैसे उपाय करते फिरते हैं. क्योंकि पेट हल्का होगा तो दिमाग चलेगा. मानसिक कार्य करने के लिए ऊर्जा नीचे से ऊपर की और जानी चाहिए और भोजन पचाने के लिए शरीर की ऊर्जा पेट की ओर जाने लगती है. यह असंतुलन आदमी का कहीं मन नहीं लगने देता. पूजा, पाठ, ध्यान, मंत्र जप आदि में भी ऊर्जा नीचे से ऊपर की ओर जाती है. इसीलिए तो ऐसे व्यक्तियों के चेहरे पर, आँखों में असाधारण तेज होता है. भक्ति व्रत करने वाले को चाहिए कि ईश्वर की भक्ति में ही मग्न रहे. भोजन करना जीने के लिए आवश्यक हैं परंतु वह भक्तिमार्ग में अथवा साधना में बाधा न बने इसलिए संयमित भोजन कहा गया है. जिन्होंने अनुभव किया है वे जानते भी होंगे कि साधना में लगे रहो तो कम खाने से ही तृप्ति हो जाती है. हिन्दू धर्म में भोजन को बड़ा महत्व है. योग में भी सबसे पहला कोष अन्नमय कोष है. इस से पार होने पर ही व्यक्ति अन्य कोषों (प्राणमय, मनोमय आदि) में प्रवेश कर पाता है. अन्नमय कोष से ऊपर उठ कर ही मनुष्य की आध्यात्मिक प्रगति संभव है. इसीलिए प्राणायाम का इतना महत्व है और इसीलिए जब बाबा रामदेव योग का उपदेश देते हैं तो प्रायः अल्पाहार के विषय में भी कुछ न कह ही देते हैं. भगवान कृष्ण ने गीता में थोड़ा (कम) खाने वाले को (कुछ और गुणों के साथ) आत्मसाक्षात्कार के पद के योग्य कहा है. ध्यान रहे, उन्होंने उपवास करने वाला नहीं कहा - थोड़ा खाने वाला (लघ्वाशी) कहा. भगवान कृष्ण कहते हैं कि भोजन तीन प्रकार का होता है और उसमें सात्त्विक भोजन आयु, बल, आरोग्य, सुख, आदि को बढ़ाने वाला है. बड़े बूढ़े प्रायः कहते भी हैं - जैसा अन्न वैसा मन. धार्मिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए जो भी व्रत कहे गए हैं उसमें दिन भर अथवा रात-दिन भूखा रहने का कोई प्रावधान साधारणतः सुनने में नहीं आता. अल्प (थोड़ा) और सात्त्विक आहार (जैसे कम मसाले वाला, फलाहार, दुग्धाहार आदि) का सेवन ही सुझाया गया है. इतना अवश्य है कि कोई धीरे धीरे ईश्वर में इतना समाता जाए कि फिर उसे खाने पीने की सुध ही न रहे. ऐसे में फिर व्यक्ति अन्नमय कोष से ऊपर उठ जाता है. दृढ़तापूर्वक व्रत करने से मनुष्य को अपने मन को वश में करना आ जाता है. मन ही सब इन्द्रियों का राजा है, और जिसने अपने मन को अपने वश में कर लिया, उसके लिए गन्दी सोच, गन्दी नियत और गंदे विचारों को रोकना कौन सी बड़ी बात है. अतः व्रत कीजिये, उपवास होना होगा तो अपने आप हो जायेगा. |
Author - Architलाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II Archives
November 2020
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