बचपन में मैंने किसी पत्रिका में एक लेख पढ़ा था जिसके अनुसार संसार में तीन लोगों का कूटनीति में कोई तोड़ नहीं था. पहले भगवान श्रीकृष्ण, दूसरे चाणक्य और तीसरे थे छत्रपति शिवाजी. शिवाजी को आप जितना पढ़ेंगे उतना ही आपके रोंगटे खड़े होते चले जायेंगे. शिवाजी का योगदान इतना बड़ा है कि उनके चरित्र को एक छोटे से लेख में उतार पाना तो संभव नहीं परंतु उनकी जयंती (19/02/2017) पर उन्हें स्मरण कर गौरवान्वित होने के लिए कुछ शब्द अर्पित करता हूँ. एक बात और, शिवाजी का व्यक्तित्व संपूर्ण भारतवर्ष के लिए गौरव का विषय है न कि केवल महाराष्ट्र के लिए. शिवाजी के जीवनकाल में मराठा साम्राज्य अपने चरम पर तो नहीं पहुँच सका परंतु उन्होंने हिन्दू स्वराज्य की जो नींव रखी वह आगे चलकर लगभग संपूर्ण भारतवर्ष में मराठा साम्राज्य का परचम फहराने में सहायक हुई. शिवाजी को जाति, वर्ण से मतलब नहीं था. उन्हें तो योद्धा चाहिए थे. चाहे अफ़ज़ल खान प्रकरण हो, सिद्दी जौहर से बचकर भाग निकलना हो, आगरा से भाग निकलना अथवा शाहिस्ताखान पर आक्रमण; एक एक प्रसंग में शिवाजी का कूटनीतिक चातुर्य निखर कर सामने आता है. शिवाजी ने हिन्दू स्वराज्य का स्वप्न अवश्य देखा था परंतु उनकी सेना में मुसलमान भी थे और आगे तक भी मराठा सेना में मुसलमानों का बड़ा योगदान रहा. पानीपत युद्ध में इब्राहिम गार्दी की वीरता कौन भुला सकता है. समुद्र में शिवाजी को दौलतखान का सहयोग प्राप्त था. शत्रु सेना के मुसलमानों ने तो मंदिर भी तोड़े, परंतु (जितना मैंने पढ़ा सुना है) शिवाजी ने मस्जिदों पर आक्रमण कभी नहीं किया. अफ़ज़ल खान के वध के पश्चात् शिवाजी ने उसके बचे हुए सैनिकों को मारा नहीं, अपितु छोड़ दिया. मानवता से बड़ा इस वीर राजा के लिए कुछ नहीं था परंतु इसका अर्थ कोई यह न लगा ले कि शिवाजी किसी को भी क्षमा कर देते थे. खंडोजी खोपड़े (जो कि उनके भाई लगते थे) ने अफ़ज़ल खान काण्ड में जो भूमिका निभाई थी उसके लिए शिवाजी ने उन्हें भली प्रकार दण्डित किया था. खंडोजी ने प्राणहानि न हो ऐसी सिफारिश लगवाई. वचन में बंधे शिवाजी मृत्युदंड तो न दे सके परंतु उन्होंने खंडोजी को उससे भी भयानक दण्ड दिया. दण्ड दूसरों के लिए एक उदहारण होता है. यदि दण्ड का भय न हो तो कोई कुछ भी कर्म करे. अपने योद्धाओं को उन्होंने निर्देश दिया हुआ था कि दुश्मन भारी पड़ने लगे तो भाग निकलो. उनका मानना था कि प्राण गँवाने से देश को कोई लाभ नहीं होगा उल्टा परिवार को कष्ट ही होगा. किला तो बाद में भी जीता जा सकता है परन्तु युद्ध में मारा गया व्यक्ति पुनः जीवित नहीं हो सकता. अपने अभिमान के लिए प्राण गँवाने की अपेक्षा अपने देश के लिए अपने प्राण बचा कर रखो. यही कारण है कि शिवाजी ने अपने जीवनकाल में कई युद्ध हारे भी और कई जीते भी और जब उन्होंने तानाजी मालुसरे, बाजीप्रभु देशपांडे, और मुरारबाजी देशपांडे जैसे वीरों को खोया तो दुःखी भी बहुत हुए. और यह उन लोगों का शिवाजी के प्रति प्रेम ही था जिसके लिए उन्होंने अपने प्राण तक त्याग दिए. कहते हैं शिवाजी के लोग बड़े मान से कहा करते थे, "आम्हीं महाराजांची मानसं" अर्थात् "हम शिवाजी महाराज के लोग हैं".
योग्य व्यक्ति कहीं भी दिखे शिवाजी उसे सम्मानित करते थे. मुरारबाजी देशपांडे और बाजीप्रभु देशपांडे जैसे लोग उन्हें शत्रु सेना से ही मिले थे. शिवाजी के पास मुग़लों जैसी कोई बड़ी सेना तो थी नहीं. उनका बल तो उनका स्वराज्य स्थापन का लक्ष्य और उनके गिने चुने लोग थे. आगे चलकर उन्हीं गिने चुने लोगों में से संताजी-धनाजी जैसे योद्धा निकले जिन्होंने औरंगज़ेब की सेना को नाकों चने चबवाये थे. समर्थ रामदास स्वामी में उनकी अटूट श्रद्धा थी. कहते हैं प्रसिद्ध संत तुकाराम की प्रेरणा से ही शिवाजी की समर्थ रामदास स्वामी से भेंट हुई थी. शिवाजी तो अपना सर्वस्व त्याग कर स्वामी के साथ भिक्षा भी मांगने लगे थे परंतु स्वामी समर्थ ने उन्हें समझाया एक राजा का धर्म यह नहीं है.
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Author - Architलाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II Archives
November 2020
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