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धर्म / समाज पर विविध विचार

माता पार्वती का नाम दुर्गा कैसे पड़ा?

1/10/2016

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​सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते I
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोSस्तु ते II 

माता दुर्गा की प्रेरणा से यह लेख लिखता हूँ! शक्तिस्वरूपा दुर्गा माता को नमस्कार है. दुर्गा माता सर्वशक्तियों से संपन्न सर्वस्वरूपा हैं. उनकी कृपा से हमें कहीं किसी से कोई भय न हो, माता सदैव हम सबकी रक्षा करें. ​
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नवरात्री का अवसर हैं और संयोग से इस वर्ष हम चेन्नई में हैं. नवरात्री तो यहाँ भी बहुत धूमधाम से मनाई जाती हैं परंतु नवरात्रि मनाने का प्रकार थोड़ा भिन्न हैं. दक्षिण भारत में नौ दिनों को नवदुर्गा के रूप में नहीं मनाते, अपितु पहले तीन दिन दुर्गा, तत्पश्चात देवी लक्ष्मी और अंतिम तीन दिन माता सरस्वती की पूजा होती हैं. 

उत्तराखंड, दिल्ली, उत्तर प्रदेश और अन्य जितने कुछ क्षेत्र मैंने देखे हैं वहाँ नवरात्रि पूजन नवदुर्गा को समर्पित किया जाता है. नवदुर्गा के नाम इस प्रकार हैं: शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्माण्डा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिद्धिदात्री.  

प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीय ब्रह्मचारिणी I 
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकं II 
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च I 
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमं II 
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा प्रकीर्ति
ताः I   
 
परंतु ध्यान देंगे तो पाएंगे कि यह सब नाम तो माता पार्वती से सम्बंधित हैं तो फिर उनका नाम दुर्गा कैसे पड़ा. स्कन्द पुराण में हमें इसका विवरण मिलता है. 
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photo source: http://www.hindugodwallpaper.com/
रुरु के पुत्र दुर्गमासुर ने ब्रह्माजी की बड़ी कठिन तपस्या की. दैत्यों (असुरों) में चाहे लाख दुर्गुण रहे हों परंतु 'लगन' नाम का​ उनमें एक ऐसा गुण होता था जिसके बल पर वे देवताओं को भी परास्त कर देते थे.

​वर्षों तक धैर्यपूर्वक ऐसा घोर तप करते थे कि भगवान को भी उन्हें मनवांछित वर देना ही पड़ता था. और उसके बाद वे त्रिलोक विजय के अभियान पर निकल पड़ते थे. उनके जीवन का लक्ष्य निश्चित था. कोई दुविधा नहीं
थी​ कि जीवन में क्या करना है. बड़े हो कर क्या बनेंगे आदि. 

दुर्गमासुर ने भी अपना मनचाहा वर पा लिया कि पुरुषमात्र से उसका वध न हो और निकल पड़ा त्रिलोक जीतने. पराक्रमी तो वह था ही, सो शीघ्र ही तीनों लोकों पर अपनी सत्ता स्थापित कर ली. यज्ञशालाएं ध्वस्त कर दीं और ब्राह्मणों के वेदाध्ययन में बाधा उपस्थित​ कर दी.

​देवताओं की शक्ति सदाचार से है. श्री अवधेशानंद जी के प्रवचन में मैंने सुना था कि देवता हमारे शरीर में तब तक रहते हैं जब तक कि हम सदाचार युक्त कर्म करें परंतु ज्यों ही हमने विपरीत कर्म किए तो वे चले जाते हैं.  

देवताओं को जब कोई उपाय न सूझा तो वे भगवान शंकर की शरण में गए. शिव की शक्ति तो शिवा है. शिव पुराण में शिवा का माहात्म्य बड़े ही सुन्दर ढंग से समझाया गया है. शिवा शक्ति हैं तो शिव शक्तिमान है. दोनों एक दुसरे के पूरक हैं. 
​
आचार्य रजनीश ने हिन्दू धर्म के सम्बन्ध में कहते हुए कहीं कहा था कि हिन्दू धर्म में स्त्री पुरुष का परम सम्बन्ध देखने को मिलता है. लोग अपने पुत्र का नाम सीताराम, गौरीशंकर, उमामहेश, लक्ष्मीनारायण आदि रखते हैं और कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि यह दो नाम है अथवा स्त्री का नाम आने से पुरुष को असुविधा हो. दोनों एक हो गए हैं. सीता और राम इतने एक हो गए हैं कि नाम में भी कोई भेद नहीं है. 

​भगवान शिव के कहने पर माता पार्वती ने कालरात्रि को प्रकट किया. देवी कालरात्रि जब दूत बनकर दुर्गमासुर को माता की ओर से ललकारने गयीं तो वह भयानक राक्षस क्रोधित हो उठा.

​उसने अपने सेवकों से कालरात्रि को पकड़ कर उसके अंतःपुर में ले जाने को कहा.
कामी पुरुष को और क्या विचार आ सकता है?​ परंतु स्त्री यदि शक्तिशाली हो तो कितना भी पराक्रमी दैत्य उसका कुछ बिगड़ नहीं सकता. 

जैसे ही दुर्गमासुर के सेवक आगे बढे, देवी ने ऐसी हुंकार भरी कि जो भी आगे आये थे सब वहीं के वहीं भस्म हो गए. दुर्गमासुर के अहंकार को बड़ी ठेस पहुंची. उसने साधारण सेवकों के स्थान पर बलशाली असुरों को देवी को पकड़ कर रनिवास भेजने को कहा परंतु देवी कहाँ किसी के पकड़ में आने वाली थी. 

देवी कालरात्रि तो वहाँ दूत बनकर आयी थीं अतः वहाँ युद्ध करना उनका काम नहीं था. अतः देवी वहाँ अधिक समय नहीं रुकीं और आकाशमार्ग से उड़ चली. परंतु दैत्यों ने उनका पीछा न छोड़ा.

​कोई आसुरी वृत्ति का हो और बलशाली भी हो तो काम के प्रभाव से उसकी बुद्धि बड़ी ही जल्दी अंधी हो जाती है. ऐसे में मनुष्य स्वयं ही अपने विनाश का मार्ग तय कर लेता है. 


दैत्यराज दुर्गमासुर भी अपनी सेना ले कर देवी कालरात्रि का पीछा करने लगा. 

उड़ते उड़ते (अर्थात आकाशमार्ग से) देवी विंध्याचल पर्वत पर पहुंची जहाँ उन दिनों महादेवी का निवास था. महादेवी पार्वती को देखते ही दुर्गमासुर उन्हें पाने को उद्यत हो उठा.

​जैसे ही असुर सेना के सैनिकों ने देवी को पकड़ने का यत्न किया, देवी ने अपने शरीर से ही अनेकों शक्तियां प्रकट कर दी. बड़ा भयानक युद्ध हुआ और दुर्गमासुर ने बड़े पराक्रम से युद्ध किया परंतु जो स्वयं ही शक्ति हो उससे वह कैसे जीत सकता था. अंततः दुर्गमासुर के प्राण उसका शरीर छोड़ कर चल दिए. 

​इस दुर्गमासुर को मारने के कारण ही माता का नाम दुर्गा हुआ. माता दुर्गा को पुनः नमन करते हुए अपनी लेखनी को यहीं विराम देता हूँ. 
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नमो देवि दुर्गे शिवे भीमनादे, सरस्वत्यरुन्धत्यमोघस्वरूपे I 
विभूतिः शची कालरात्रि: सती त्वं नमस्ते जगत्तारिणि
 त्राहि दुर्गे II

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    Author - Archit

    लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II
    ​

    ज्योतिष के विषय से मैंने इस वेबसाइट पर लिखना शुरू किया था परंतु ज्योतिष, धर्म और समाज को अलग अलग कर के देख पाना बड़ा कठिन है. शनैः शनैः मेरी यह धारणा प्रबल होती जा रही है कि जो भी संसार में हो चुका है, हो रहा है अथवा होने वाला है वह सब ईश्वर के ही अधीन है अथवा पूर्वनियोजित है. लिखना तो मुझे बाल्यकाल से ही बहुत पसंद था परंतु कभी गंभीरता से नहीं लिया. कविताएं लिखी, कहानियां लिखी, निबंध लिखे परंतु शायद ही कभी प्रकाशन के लिए भेजा. मेरी कविताएं और निबंध (जिनका संकलन आज न जाने कहाँ हैं) जिसने भी देखे, प्रशंसा ही की. यह सब ईश्वर की कृपा ही थी. धार्मिक क्षेत्र में मेरी रुचि सदा से ही रही है परंतु पुत्र होने के बाद थोड़ा रुझान अधिक हुआ है. ना जाने कब ईश्वर ने प्रेरणा दी और मैंने इस पर लिखना शुरू कर दिया.

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