श्री गुरवे नमः वैसे तो आजकल विद्यालयों में "टीचर्स डे" अधिक धूमधाम से मनाया जाने लगा है परन्तु गुरु पूर्णिमा का अब भी भारत में पर्याप्त महत्व है. हमारे विद्यालय में कुछ श्लोक हमसे नित्य बुलवाए जाते थे, उनमें से एक था: गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः। गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥ गुरु की महिमा अनन्त है. गुरु जितना श्रेष्ठ होगा उतना ही शिष्य के श्रेष्ठ होने की सम्भावना होती है और गुरु यदि चाणक्य जैसा हो तो क्या पता कोई साधारण बालक भी महान चन्द्रगुप्त मौर्य जैसा बन जाए. कुछ दिनों पहले मैंने एक फिल्म (चलचित्र) देखी जिसमें इप मैन नामक पात्र का जीवन दिखाया गया था. फिल्म के अंत में ब्रूस ली (Bruce Lee) को कुछ ही क्षणों के लिए एक बालक के रूप में दिखाया गया जो इप मैन का शिष्य बनना चाहता है. उत्सुकतावश मैंने इंटरनेट पर देखा तो पता चला कि यह व्यक्ति तो ब्रूस ली जैसे अन्य कई महान लोगों का गुरु रह चुका है. कबीर ने सत्य ही कहा है, गुरु गोबिंद दोउ खड़े, काको लागूं पाए । बलिहारी गुरु आपने गोबिंद दियो बताय ॥ महाभारत में तो गुरु शिष्य परंपरा के अनेकों उदहारण मिल जायेंगे. कथा के प्रारम्भ में ही उपमन्यु की कथा आती है जिसने गुरु के कहने भर से ही एक एक कर के सब त्याग दिया और अंततः विषैले पत्ते खा कर अँधा हो कर कुएं में गिर पड़ा. बाद में जब गुरु उसे ढूँढ़ने निकले तो पता चला उपमन्यु तो कुएं में है. उन्होंने उसे अश्विनीकुमारों की स्तुति करने को कहा जिसके फलस्वरूप वह पहले जैसा हो गया. जैसे गुरु होते थे वैसे ही फिर शिष्य भी होते थे. यही कारण है कि आचार्य द्रोण के अर्जुन जैसा शिष्य हुआ, परशुराम के कर्ण, भीष्म और द्रोण जैसे शिष्य हुए. भगवान कृष्ण के सांदीपनि और भगवान राम के विश्वामित्र जैसे महान गुरु हुए. भारत में गुरु को इतना सम्मान था कि यदि गुरु ने श्राप भी दे दिया तो शिष्य उसे सहज ही स्वीकार लेता था. फिर चाहे कर्ण को दिया परशुराम का श्राप हो या दुर्वासा का भगवान कृष्ण को दिया श्राप. एकलव्य का अपना अंगूठा काट कर गुरु को अर्पित कर देना भी आज तक गुरुभक्ति का उदाहरण बना हुआ है. दैत्यों के मध्य रहकर भी शुक्राचार्य का सम्मान किसी से कम नहीं था. आज के समय में गुरु शिष्य परंपरा के नाम पर विद्यालय जाना ही रह गया है. माता पिता जो बच्चे के पहले गुरु होते हैं वो नौकरी पर जाने के कारण बच्चे को समय नहीं दे पाते. बच्चा किसी तीसरे ही स्थान पर (जिसे क्रेच कहते हैं) जा कर समय बिताता है और घर लौट आता है. ज्ञान, सदुपदेश और संस्कार मिलने के स्थान पर माता पिता की चिड़चिड़ाहट का उसे अधिक सामना करना पड़ता है. जो विद्यालय में पढ़ते हैं वे गुरुजन भी अपने निजी जीवन में सुखी नहीं हैं. किसी को वेतन कम है तो कोई इसलिए पढ़ाता है क्योंकि वह पढ़ाने को विवश है. कई लोग जिन्हें और कहीं काम नहीं मिलता वे शिक्षक (टीचर) बन जाते हैं. ऐसे लोग हो सकता है सही से गुरु का दायित्व न निभा पाएं परन्तु फिर भी शिष्य को गुरु का सम्मान तो करना ही चाहिए. एक और लाचारी यह है कि गुरुजन विद्यार्थी को दण्डित नहीं कर सकते. ऐसा होने पर माता पिता तुरंत विरोध करने पहुँच जाते हैं. कई बार तो समाचारपत्र/चैनल वाले भी पहुँच जाते हैं. बहुत बुरी तरह प्रताड़ित किया जाना भी उचित नहीं परन्तु चूक होने पर थोड़ा बहुत दण्ड तो अवश्य मिलना ही चाहिए. हमारे समय और हमसे पहले के समय में तो दण्ड मिलना बड़ी साधारण बात थी परन्तु अब वातावरण बदल रहा है. शिष्य भी बदल रहे हैं और गुरु भी बदल रहे हैं. हर किसी में इतना धैर्य तो नहीं होता कि विवेकानंद अथवा योगानंद की भांति अच्छे गुरु की तलाश में निकल पड़े और धैर्यपूर्वक अपनी खोज में लगा रहे. इस सबका परिणाम यह होता है कि जब व्यक्ति को वास्तव में ज्ञान की आवश्यकता होती है तब उसे कोई सिखाने वाला नहीं होता. शिक्षण के समय उसने ध्यान दिया नहीं होता और नौकरी में उसे कोई सिखाता नहीं. फिर जो होता है वह आप सभी जानते हैं. मैं स्वयं को इस सन्दर्भ में बड़ा ही भाग्यशाली समझता हूँ कि मुझे माता पिता के रूप में महान गुरु मिले, स्कूल (विद्यालय) में भी अच्छी शिक्षा देने वाले गुरु मिले, और जीवन में जहाँ कहीं भी मैंने कुछ सीखने का प्रयास किया तो बहुत ही अच्छे गुरु और उपदेश देने वाले लोग मिले. दुर्भाग्य से कुछ गुरुओं के पास मैं बहुत कम समय व्यतीत कर सका. गुरु पूर्णिमा के इस पावन पर्व पर सभी गुरुओं को मन और आत्मा से नमन करते हुए अपनी लेखनी को यहीं विश्राम देता हूँ. ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवल ज्ञानमूर्तिं । द्वंद्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम् ॥ एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतम् । भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि ॥ |
Author - Architलाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II Archives
February 2021
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