मंदिर जाने के सबके अपने कारण हैं. कोई प्राचीन मंदिरों की बनावट निहारने जाता है, कोई शांति पाने, कोई कुछ माँगने तो कोई ईश्वर की भक्ति करने. कई लोग मन्नत पूरी करने के लिए भी मंदिर जाते हैं. कोई कोई तो केवल इसलिए जाता है कि दस लोगों में कह सके कि मैं अमुक मंदिर में जा चुका हूँ अर्थात् अपने अहंकार के पोषण के लिए. जो भी हो मंदिरों में इतनी भीड़ होने लगी है कि यदि कोई मंदिर में रखी ईश्वर की प्रतिमा को दो पल निहारना चाहे तो बड़ा कठिन होगा. वैकुण्ठ, कैलासी तीर्थक्षेत्री देव। तयाविण ठाव रिता कोठें॥ देव वैकुण्ठ, कैलास एवं तीर्थक्षेत्रों में बसता है परन्तु ऐसा कौन सा स्थान है जहाँ वह नहीं है. जब यह संसार ही भगवान के उदर में है तो फिर सब कुछ ईश्वरमय ही हुआ. ऐसा संत कहते हैं. मराठी संतों ने नामस्मरण का विशेष महत्त्व बताया है. जब नामदेव कहते हैं, "तीर्थाचें पैं तीर्थ नाम हे समर्थ" तो कहीं न कहीं उनका मंतव्य यही लगता है कि नित्य नामस्मरण तीर्थक्षेत्रों के भ्रमण से भी बढ़कर है क्योंकि ऐसा करने से व्यक्ति अपने भीतर के तीर्थ को खोज पाता है. और ज्ञानदेव तो कहते हैं कि यदि मन में भाव न हो तो सब भ्रमण व्यर्थ है, फिर चाहे कोई तीर्थ हो. उपनिषदों में तो बताया है कि परमात्मा भीतर ही प्रतिष्ठित है. इसका अर्थ यह नहीं कि मंदिर का कोई महत्त्व नहीं. निर्गुण तक पहुँचने का मार्ग सगुण से हो कर भी जाता है. हर कोई तो सीधे निर्गुण तक नहीं पहुँच सकता. मंदिर का अपना महत्त्व है परन्तु तब जब मंदिर में कुछ समय बिताया जाये. मंदिर को आत्मसात् किया जाये. उसका अनुभव किया जाये. न कि अहंकार पोषित करने के लिए अथवा दस लोगों को बताने के लिए कि मैंने सभी मंदिर देखे हैं. अहंकार रखकर भी किसी ने ईश्वर को पाया है भला. कुछ दिनों पहले पुणे जाना हुआ. मार्ग में यूँ ही चर्चा चली तो आळंदी का नाम आया और मेरे मुख से अनायास ही निकल पड़ा, "वाह! बचपन से जिनकी रचनाएँ सुनते आये हैं उन महान संत ज्ञानेश्वर के समाधिस्थल के पास से हो कर गुज़रने को मिलेगा." वाहनचालक (ड्राइवर) ने उस समय तो कुछ नहीं कहा परन्तु लौटते हुए ठीक मंदिर के पास ले जाकर गाड़ी रोक दी और बोला, "यह इंद्रायणी नदी है, इसके किनारे से जो रास्ता है वह मंदिर को जाता है. आप हो कर आओ मैं यहीं रुकता हूँ." मंदिर प्राचीन था और अतिसुन्दर भी परन्तु दर्शनों के लिए इतनी लम्बी कतार लगी थी कि लगता था जाने कब दर्शन हो सकेंगे. जब दर्शनों का समय आया तो वहाँ एक सुरक्षाकर्मचारी (सिक्योरिटी गार्ड) सभी को आगे बढ़ा रहा था. मूर्ति को देखने भर का ही समय मिला इतने में आगे निकल जाना पड़ा. मंदिर प्रशासन का कोई दोष नहीं. भीड़ ही इतनी आती है कि यदि नियंत्रित न किया तो औरों को दर्शन कैसे मिल सकेगा. कहते हैं श्रीरंगं भारत का सबसे विशाल मंदिर है. एक बार वहाँ भी जाने का अवसर मिला परन्तु दर्शन न हो सके. दर्शनों के लिए पंक्ति इतनी लम्बी थी कि साहस न हुआ दर्शन करने का. ५०० रुपये प्रति व्यक्ति देकर ५ मिनट में दर्शन हो जाते परन्तु पैसे दे कर दर्शन करना मेरे सिद्धांतों के विरुद्ध है. ऐसे में मैं बाहर से ही भगवान को हाथ जोड़ दिया करता हूँ. और भी कई प्रसिद्ध मंदिरों में मेरा जाना हुआ वहाँ भी यही स्थिति थी. दर्शन नहीं हो पाते. पैसे दे दो तो झट से करा देंगे. ईश्वर यदि धन से मिलते होते तो कभी ज्ञानेश्वर, कबीर, नानक, गोरा कुम्भार, चोखा मेला, गोरक्षनाथ आदि को न मिले होते. कोई कोई मंदिर में तो सौभाग्य से बड़े आराम से समय व्यतीत करने को मिलता है. मेरे विचार से वही वास्तविक अनुभव है. भावेवीण भक्ति भक्तीवीण मुक्ति। बळेंवीण शक्ति बोलू नए॥ ज्ञानेश्वर कहते हैं - "जहाँ भाव नहीं होगा वहाँ भला भक्ति कैसे होगी" और धक्कामुक्की के बीच भाव प्रायः कहीं खो जाता है या आते आते रह जाता है. मंदिर का महत्त्व क्यों है? क्या वास्तु के कारण? या कोई और वैज्ञानिक कारण है? समय समय पर गुरु नानक, एकनाथ, साईं बाबा आदि संतों ने चेताया है कि "हरिचिया दासा हरि दाही दिशा". हरि दसों दिशाओं में है. सर्वत्र व्याप्त है. परन्तु हम लोग उनकी कही बातों को भूल कर उनकी प्रतिमा के दर्शनों की होड़ में लग जाते हैं. उनकी बातों को अपनाने से तो दर्शन करना अत्यंत सरल है. आपने कभी ध्यान दिया हो तो आपने भी पाया होगा कि हरेक मंदिर में एक जैसी अनुभूति नहीं होती. किसी किसी में दिव्य अनुभव होता है और कहीं कहीं तो भावावेश में आँसू तक आ जाते हैं. किसी किसी मंदिर में कुछ भी अनुभव नहीं होता. क्यों? कहना कठिन है. क्या पता किसकी साधना अथवा दिव्य उपस्थिति उस क्षेत्र को ऊर्जावान बना रही है. ऐसा मेरा सोचना है. आपके विचार भिन्न भी हो सकते हैं. मंदिर का महत्त्व होता है नियमित पूजा पाठ से और भक्ति से. ईश्वर की साधना से. अपने घर में जो देवता की प्रतिमा प्रतिष्ठित है उसमें भी वही परमात्मा है. मंदिरों में तो प्रायः दुर्व्यवहार का सामना भी करना पड़ जाता है. घर में बैठी प्रतिमा के निकट चाहे जितना देर बैठो कोई रोकने वाला नहीं. चाहे जिस समय बैठो कोई मनाही नहीं. यदि ईश्वर के प्रति भक्ति हो तो सिद्ध मंदिर में मिलने वाली शांति घर के मंदिर में भी मिलती है परन्तु "घर का जोगी जोगना आन गाँव का सिद्ध". |
Author - Architलाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II Archives
February 2021
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