![]() तुलसी इस संसार में भांति भांति के लोग. ऐसे भी लोग हैं जो दिन का आरम्भ ईश्वर के नाम से करते हैं और अंत भी भगवान के नाम से करते हैं. अपने फ़ोन में तो वो धार्मिक रिंगटोन रखते ही हैं और साथ ही साथ ऐसी भी व्यवस्था करते हैं कि कोई उनसे दूरभाष (फ़ोन) से बात करना चाहे तो पहले वो धार्मिक गीत (Caller Tune) सुने. मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाए. उनमें से कुछ लोग ईश्वर का नाम अभिवादन के लिए भी करते हैं. नमस्कार! नमस्ते! ऐसे शब्दों में उनकी रुचि नहीं होती. वे जिन शब्दों का प्रयोग करते हैं, उनमें प्रमुख हैं, "ॐ साईं राम", "राम राम", "जय श्री राम", "ॐ नमः शिवाय", और आजकल जो बहुत प्रचलित हो चला है वो है, "राधे राधे". और फिर तुलसीदास ने भी तो कहा है, "राम राम कहि जे जमुहाहीं, तिन्हहिं न पाप पुंज समुहाहीं". अपनी कार (चौपहिया वाहन) में वे भगवान का एक चित्र अथवा मूर्ति रख कर यह सुनिश्चित कर लेना चाहते हैं कि कहीं भगवान को देखना रह न जाए. कार्यालय (ऑफिस) जाते हुए भजन सुनने का तो आनंद ही कुछ और है ऐसा सोचकर अपनी गाड़ी (कार) में कुछ भजन संग्रह आदि रख लेते हैं. अब प्रश्न यह उठता है कि क्या यह सब सही है. नमस्ते अथवा नमस्कार कोई तुच्छ शब्द नहीं है. बात सिर्फ यह है कि इसकी महिमा का किसी ने वर्णन नहीं किया. इसलिए लोग जय श्री कृष्ण या जय महाकाल आदि शब्दों की ओर उन्मुख हो गए पूजा पाठ में बहुत से स्तोत्र ऐसे मिलेंगे जहां नमस्ते कह कर ही स्तुति की गयी है. गणपति अथर्वशीर्ष तो आरम्भ ही नमस्ते से होता है, "ॐ नमस्ते गणपतये". और उदहारण के लिए कुञ्जिकास्तोत्र से यह पंक्तियाँ देखिये जहां देवी को नमस्ते कहा जा रहा है: नमस्ते रुद्ररूपायै नमस्ते मधुमर्दिनि, नमस्ते कैटभनाशिन्यै नमस्ते महिषार्दिनि, नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भासुरसूदिनी, नमस्ते जाग्रते देवि जपे सिद्धिम कुरुष्व मे नमस्ते वास्तव में अहंकार पर चोट करने का एक सशक्त माध्यम हैं. नमस्कार भी समानार्थक ही है. इस एक शब्द से ही मानव मात्र का कल्याण संभव है. यह एक प्रकार का सादर प्रणाम है जिसमें इसे करने वाला व्यक्ति दुसरे के आगे झुक रहा है. लेकिन मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति अहंकार को छोड़ने की नहीं, अपितु पकड़ने की है अतः उसने जय गणेश, या जय श्री राम कहना शुरू किया जिस से उसे दुसरे के आगे झुकना भी नहीं पड़ा और ईश्वर का भी ध्यान हो गया. इसी प्रकार का एक संवाद मैं अमरीकी नागरिकों में देखता हूँ, जो आजकल इधर भी लोग अपना रहे हैं. पहले थैंक्यू (Thank you) शब्द का चलन था, जिसमें कृतज्ञता का भाव था और कृतज्ञता जहां हो वहाँ अहंकार का कोई काम नहीं होता. लेकिन अहंकार के बिना काम कैसे चले, तो उसमें थोड़ा सुधार कर उन्होनें बनाया, "रियली अप्प्रेसिएटेड" (really appreciated) या very much appreciated जिसका अर्थ कृतज्ञ होना नहीं अपितु दुसरे की पीठ थपथपाने जैसा है. अपने फ़ोन में भगवान का नाम सुनना, सुनाना कोई बुरा नहीं, किन्तु भगवान का ध्यान यदि पूर्ण श्रद्धा से किया जाए तो अधिक फल मिलता है, ऐसा मेरा मानना है. स्कन्द पुराण में भी कहा गया है, "जो ब्राह्मण केवल पाठ मात्र करते हैं, अर्थ नहीं समझते, वे दो पैरोंवाले पशु हैं". यहाँ यह ध्यान रहे कि ब्राह्मण कर्म से होना अधिक महत्त्वपूर्ण है, जन्म से होना उतना नहीं. "निकले ख़ुलूस दिल से अगर वक़्त-ए-नीमशब, इक आह इक सदी की इबादत से कम नहीं". इस शायर ने चाहे जिस उद्देश्य से कहा हो, लेकिन बात सही जान पड़ती है. एक आह एक सदी की इबादत से कम नहीं. भगवान का भजन लगा कर रखना और साथ ही दुसरे कामों में लगे रहना, क्या भगवान की उपेक्षा करना नहीं है. यह बात तो कम्युनिकेशन स्किल्स (व्यवहार कुशल होने का एक प्रकार का प्रशिक्षण) में भी सिखाई जाती है कि यदि कोई आपसे कुछ कह रहा हो तो उसकी बात ध्यान से सुनिए. कोई अन्य काम करते हुए उसको "हाँ, हूँ" कहना चतुराई नहीं, उपेक्षा है. चूंकि भगवान कुछ कहता नहीं तो जैसा मन करे वैसा चल जाता है. |
Author - Architलाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II Archives
February 2021
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