अनिल किसी काम से अर्पणपुर आया था. उसने सुना था उस गाँव में बड़े पहुंचे हुए सिद्ध रहते थे और यदि किसी का भाग्य हुआ तो सिद्ध योगियों का आशीर्वाद भी मिल जाया करता था. अनिल को काम तो एक ही दिन का था परन्तु उसने कार्यालय से अर्पणपुर में ठहरने को दो दिन की छुट्टी और ले ली. बड़ा अनोखा गाँव था अर्पणपुर! अन्न, नमक, दूध, फल और खाने की कई वस्तुएं वहाँ बिना खरीदे ही सुलभ थीं. लोगों में रोष, आक्रोश आदि कुछ भी नहीं दीख पड़ता था. कोई गाय का दूध दुह रहा है तो बस दूध ही दुह रहा है, और किसी बात का होश ही नहीं. कोई बैठा है तो बैठा ही है. चार लोग इकट्ठे हो कर ध्यान कर रहे हैं, मानों गोरक्षनाथ की बात गाँठ बाँध ली हो - "हसीबा षेलिबा धरिबा ध्यान" (हंसो, खेलो और ध्यान करो). यह सब देख मन ही मन आश्चर्य करते हुए अनिल आगे बढ़ ही रहा था कि किसी से उसकी टक्कर हुई. उसने क्षमा मांगने हेतु गर्दन घुमाई ही थी कि भय के मारे उसके प्राण सूख गए. सामने एक मेघ जैसे श्वेतवर्ण का सिंह खड़ा था! सिंह के माथे पर रक्तवर्ण का सुन्दर तिलक था और नेत्र अत्यन्त तेजस्वी. कोई भी सांसारिक सिंह इतना सुन्दर तो न होगा. अनिल बस खड़ा का खड़ा ही रह गया. ह्रदय और कनपटी दोनों ही धाड़ धाड़ बजने लगे. माता, पिता, बॉस (अधिकारी), मित्र, बंधू, सुख, दुःख, आशा, निराशा, कुछ नहीं सूझ रहा था. जिस स्थिति में एक समाधिस्थ योगी रहता है उसी स्थिति में अनिल चला गया था. कहना कठिन है कि ऐसा भय से हुआ अथवा किसी और कारण से परन्तु इतना निश्चित है कि अनिल की सोचने समझने की शक्ति का कुछ समय के लिए लोप हो गया था.
वह दिव्य सिंह अपनी ओर से शांत खड़ा अनिल की उस स्थिति को देखता रहा. कुछ क्षण बीत जाने के पश्चात उस सिंह ने ज़ोर से सांस छोड़ी तो अनिल की समाधी अवस्था भंग हुई. अर्थात उसे होश आया. "तुम्हें इसी स्थिति में लाने को मैंने जाने क्या क्या किया परन्तु तुम नौकरी, धन, स्त्री, स्वाद, सुगंध आदि में फंसे रहे. आज तुम्हें होश में लाने के लिए मुझे स्वयं इस रूप में आना पड़ा". अनिल तो वैसे ही आश्चर्यचकित था और सिंह के मुख से शब्द निकलते देखना तो फिर आश्चर्य की पराकाष्ठा ही थी. "ऐसा प्रतीत होता है मेरे इस रूप से तुम उलझन में पड़ गए हो. आओ कहीं एकांत में चलते हैं". ऐसा कहकर उस सिंह ने अपने नीचे की भूमि पर पंजे से प्रहार किया और उन्हें फल और पुष्पों से सजे वृक्षों से भरा एक मार्ग नज़र आने लगा. अनिल अभी तक सामान्य नहीं हुआ था. जो हो रहा था वह बस देखे जा रहा था. सिंह ने उसे अपने पीछे आने को कहा तो अनिल बिना कुछ कहे बस चल पड़ा. मार्ग में उन्हें अत्यन्त सुन्दर झरने, नदियां, पर्वत, वृक्ष, और भांति भांति के जीव दिखाई दिए. यद्यपि दोनों पैदल चल रहे थे परन्तु ऐसा लग ही नहीं रहा था कि कोई श्रम करना पड़ रहा है. मानो वे हवा में उड़ रहे हों. इस प्रकार काफी समय चलने के बाद दोनों ने एक गुफा में प्रवेश किया. "आप यहाँ रहते हैं!" पहली बार अनिल के मुख से कुछ निकला. समय के साथ वह थोड़ा सामान्य होने लगा था. "मेरे इस सिंहरूप को देख कर भी तुम ऐसा प्रश्न करते हो? काफी समय से चल रहे हो. थोड़ा भोजन और विश्राम कर लो. फिर आराम से चर्चा करेंगे". अनिल के मन में विश्राम के लिए कहाँ कोई स्थान रह गया था. बहुत समय से शांत मन में अब उत्सुकता घर करने लगी थी. आश्चर्य की बात थी कि बिना किसी बिजली की अथवा अग्नि की व्यवस्था के गुफा प्रकाशमान थी. जिन पत्थरों से वह गुफा बनी थी उन्हीं से प्रकाशित हो रही थी. किसी प्रकार की सीलन, गन्दगी, अपवित्रता वहाँ नहीं दीख पड़ती थी. अभी अनिल यह सब निरिक्षण कर ही रहा था कि सिंह ने वहाँ पुनः प्रवेश किया. इस बार वह दो पैरों पर चलते हुए आ रहा था और उसके हाथ में एक भोजन की थाली थी. आते आते ही उसके पैर मनुष्यों जैसे हो गए और धीरे धीरे फिर पूरा शरीर ही मनुष्य का हो गया. अनिल बेहोश होते होते बचा. शरीर पर कोई वस्त्र नहीं, गौर वर्ण के शरीर पर भस्म वस्त्रों का ही काम करती जान पड़ती थी, चेहरे पर सिंह जैसी दाढ़ी/मूछें, नेत्रों में एक विशेष स्नेह और तेज से भरी चमक, आग की तरह चमकता शरीर और सिर पर सफ़ेद परन्तु सुन्दर लम्बे केश. अनिल ने भोजन की थाली ली और बड़े संकोच से बोला, "हे महात्मा! आप कोई साधारण मनुष्य नहीं. पहले मुझे सिंह रूप में मिले और अब मानव बन गए. इस गुफा में ऐसी भोजन और निवास की व्यवस्था करने वाले आप तो कोई सिद्ध जान पड़ते हैं. मैं आज आपके दर्शन पा कर धन्य हुआ. आपको नमस्कार है. कृपा कर अपना वास्तविक परिचय दीजिये और इस सारे घटनाक्रम पर प्रकाश डालिए". "अनिल पुत्र, अभी मेरे ध्यान का समय हो चला है. तुम भोजन कर के विश्राम कर लो. हम कल प्रातः चर्चा करेंगे". भोजन अत्यन्त स्वादिष्ट था परन्तु मन में प्रश्न हों तो भोजन भी ढंग से नहीं जाता. अनिल ने जैसे तैसे भोजन किया और सोने की तैयारी करने लगा. दिन भर से जो घटित हो रहा था उसके बाद इतनी सरलता से नींद कैसे आती. नींद नहीं आनी थी, नहीं आई तो ॐ का उच्चारण कर ध्यान लगाने का प्रयास करने लगा. अनिल को जीवन में कभी ध्यान नहीं लगा था. उसने बड़ा प्रयास किया, मंत्र जपे, स्तोत्र पढ़े, पुस्तकें पढ़ीं परन्तु कभी ध्यान नहीं लगा. सुना था प्रकाश दीखता है, ऐतिहासिक दृश्य दीखते हैं आदि परन्तु दिखा कभी कुछ भी नहीं. इस बार वह हुआ जो कभी नहीं हुआ था. उस तपस्वी की गुफा में बैठे अनिल का कुछ ही क्षणों में ध्यान लग गया. जैसा उसने स्तोत्रों में पढ़ा था - "कोटिसूर्यसमप्रभ", बस वैसा ही प्रकाश उसे दीखने लगा. बंद नेत्रों से भी वह हर ओर प्रकाश देख रहा था. उसे ऐसा लगने लगा जैसे इस प्रकाश के मार्ग पर वह आगे को बढ़ रहा है. वह बढ़ता गया, बढ़ता गया और तब उस प्रकाश के बीच से उसे किसी ने सम्बोधित किया. बड़ी ही स्नेहमयी वाणी थी. इतनी मधुर वाणी अनिल ने कभी अपने जीवन में नहीं सुनी थी. वह दिव्य वाणी बोली, "तुम्हें इस स्थान पर मैंने ही लाया है. वह योगी जो तुमने अभी देखा था वो मैं ही हूँ और वह सिंह भी मैं ही हूँ. मुझे ही तुम ईश्वर कहते हो". "परन्तु आपको तो मैं अपने ध्यान में देख रहा हूँ. आपका तो कोई स्वरुप भी मुझे नहीं दीखता. केवल प्रकाश ही दीख पड़ता है. आप वो योगी कैसे हो सकते हैं. आज इतने चमत्कार घटित हो रहे हैं कि मुझे लगता है मैं स्वप्न देख रहा हूँ". "यह कोई स्वप्न नहीं है. जो भी तुम देख रहे हो वह सत्य है. मैंने पहले भी तुमसे कई बार भेंट करी है परन्तु तुम मुझे कभी पहचान नहीं पाये. कई बार मैंने तुम्हें दूसरों के माध्यम से सन्देश देना चाहा परन्तु तुम काम, क्रोध और मोह में पड़े होने के कारण समझ नहीं पाए. स्मरण रहे मैंने तुम्हें पृथ्वी पर किसी उद्देश्य से भेजा है और तुम उस उद्देश्य को छोड़ विषयवासना में लिप्त हुए जाते हो". "मैं तो नित्य आपकी आराधना करता हूँ. मंदिरों में जाता हूँ. सामर्थ्यानुसार दान भी करता हूँ". "वाहन चालक (टैक्सी ड्राइवर) और भोजनालय के बैरे (वेटर) को रुपये पकड़ाने को क्या तुम दान की श्रेणी में रखते हो. अपने अहम् के पोषण के लिए किया गया दान अथवा कुपात्र को किया गया दान तुम्हारी दृष्टि में दान है? क्या तुम्हारे लिए दान का अर्थ मात्र किसी को पैसा देना ही है? मंदिर के बहाने से दर्शनीय स्थल घूमना तुम्हारी दृष्टि में क्या तीर्थयात्रा करने जैसा है? भावहीन हो कर की गयी आराधना क्या मुझे कभी प्रसन्न कर सकेगी?" "आप मुझे आदेश दें मैं क्या करूँ. मैं वचन देता हूँ वही करूंगा." "हे अनिल! गृहस्थ धर्म के पालन के लिए धनोपार्जन एवं अन्य सांसारिक कर्म आवश्यक हैं. अतः वो तो करना ही होगा परन्तु जो तुम ऐश्वर्य में आसक्ति बढ़ाते जा रहे हो, इंद्रियों के अधीन होते जा रहे हो और अपने ही सुखों का विचार करने लगे हो, उसे छोड़ कर संसार में अन्य लोगों के विषय में भी सोचो. अपने सुख दुःख से ऊपर उठो. अपने मन में दूसरों के प्रति सहानुभूति रखो और जिसे सहायता की आवश्यकता हो उसकी सहायता करो. नौकरी जाने का भय, धन चले जाने का भय, आदि को त्याग दो और एक बड़ी सोच के साथ जीवन में आगे बढ़ो. इस मार्ग में मैं सदैव तुम्हारे साथ हूँ". अनिल ने उस प्रकाश को नमस्कार किया. "अब मैं तुम्हें पुनः अर्पणपुर पहुंचा देता हूँ जहां से तुम्हें अपना नया जीवन प्रारम्भ करना है". अनिल ने आँखें खोली तो स्वयं को अर्पणपुर में पाया. उसी स्थान पर जहां वो उस दिव्य सिंह से टकराया था. गुफा, सुन्दर दृश्य, योगी, वहाँ पर कुछ नहीं था. उसने बड़ी ही श्रद्धा से भगवान को हाथ जोड़े और इस विचित्र अनुभव के लिए धन्यवाद किया. अर्पणपुर से अपने बड़े शहर वाले कार्यालय लौटते ही उसने अपनी अधिक आय वाली नौकरी से त्यागपत्र दिया और एक छोटे नगर में शिक्षक के रूप में कार्यरत हो गया. आय कम थी, परन्तु सम्मान था, संतोष था, समय था और समय ही उसकी उद्देश्य प्राप्ति में सबसे महत्त्वपूर्ण सिद्ध होने वाला था. नोट: यह एक काल्पनिक प्रसंग है. यदि ऐसी कोई घटना कहीं हुई भी हो तो भी इसका किसी सत्य घटना से कोई सम्बन्ध नहीं. |
Author - Architलाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II Archives
November 2020
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