कहीं पर छपा, "वेद पढ़ना बहुत आसान है, वेदना को पढ़ना बेहद मुश्किल", तो बहुत लोगों को यह बात खूब जँची. उन्होंने इसे आगे फैलाने में देर नहीं की पर इस सब में हुआ क्या? अनजाने में उन्होंने वेदों की उपेक्षा कर दी. पलट कर पूछा नहीं कि वेद पढ़ना आसान कैसे है. और यह कहा किसने कि वेदों को पढ़ना है. वेद शब्द बनता है विद् से. यह शब्द 'जानने' पर बल देता है. कहता है 'जान लो'. तो हिन्दू धर्म में पढ़ना इतना महत्त्वपूर्ण नहीं जितना जान लेना है. ईश्वर प्राप्ति के सभी मार्ग जान लेने पर बल देते हैं पढ़ने मात्र पर नहीं. पढ़ने के लिए तो दूसरे की वेदना पढ़ना भी बहुत सरल है परन्तु उसे जान लेना कठिन. कितनी ही बार लोग झूठी वेदना पढ़ाकर मूर्ख बना जाते हैं. उधार माँगने वालों को तथा भिखारियों को तो यह कला विशेष रूप से आती है. विद्वान् वही है जो दूसरे की वेदना को जान सके और यथायोग्य उसका निराकरण कर सके. ऐसा तभी होगा जब दूसरे में और अपने में कोई भेद न रहे अथवा समस्त संसार को ईश्वरमय जान लिया जाये. यह भी एक कारण है कि प्राचीन ऋषि मुनि अहम् ब्रह्मास्मि कहते पाए जाते हैं. तुलसीदास गाते हैं, "सियाराममय सब जग जानि" और वेद कहते हैं, "ईशावास्यमिदं जगत्". तो जब संत कहते हैं, "जे जे दृष्टि दिसे ते ते हरिरूप" (जो जो दीखता है वह हरिरूप है) तो वह वेदों को ही दोहरा रहे हैं. वेदों को पीछे नहीं छोड़ रहे. इसके विपरीत पाश्चात्य संस्कृति में सब बाहर है. एक दूसरे को पीछे छोड़ने को महत्त्व है. इसलिए बहुत से विदेशी लोगों के वेदों पर अथवा अन्य भारतीय ग्रंथों पर विचार पढ़ो तो अलग ही पता चल जाता है. आध्यात्मिक लोग कहते हैं कि वेद प्रकट हुए और भौतिकवादी लोग इसमें उलझे हुए होते हैं कि वेद कब रचे गए. उन्हें बड़ी कठिनाई होती है यह समझने में कि वेद प्रकट हुए. अतः जो लोग ऐसे सन्देश फैलाते हैं कि वेद पढ़ना सरल है वेदना कठिन, वे ऐसे लोग हैं जिनके भीतर करुणा तो है, जो चाहते हैं पीड़ित लोगों का भला हो परन्तु उन्होंने वेदों का, संतों का संग नहीं किया. उन्हें अनुमान नहीं है कि वेद कितने सुन्दर सन्देश देते हैं. और इसमें सही ग़लत का प्रश्न नहीं है. जो आज की शिक्षा पद्धति है उसमें पढ़ कर रट लेने पर ही अधिकांश बल है. भौतिकवाद शिक्षा में छाया हुआ है. जीवन मूल्यों पर चिंतन है नहीं परन्तु मानव ह्रदय इतना संवेदनहीन भी अभी नहीं हुआ कि दूसरे को कष्ट में देखकर द्रवित न हो. करुणा अभी बाकी है. इसलिए ऐसे सन्देश कहीं सुनता है, तो सोचता है कम से कम इसे (सन्देश को) फैला कर ही किसी का कुछ भला कर सकूँ. जैसे कुछ दिन पहले सरदार पटेल की प्रतिमा के विषय में हुआ. एक महिला मुझे बोलीं कि साढ़े तीन हज़ार करोड़ रुपयों में तो कितने ही भूखों को भोजन दिया जा सकता था. प्रतिमा में क्यों इतना धन लगाया. यह सब व्यर्थ ही तो है. संभवतः इन श्रीमतीजी ने कहीं सुन लिया अथवा पढ़ लिया और दोहराने लगीं परन्तु विचार कीजिये तो जानेंगे कि एक प्रतिमा से कितने लोगों को काम मिला. और हम बढ़ावा किसे देना चाहते हैं, काम करने वालों को या भीख मांगने वालों को. प्रतिमा को बनाने के लिए वास्तुकार, शिल्पकार, मज़दूर आदि लोगों को काम मिला. लोहा, बजरी, सीमेंट, आदि सामान देने वाले कारखानों को काम मिला. प्रतिमा बन जाने के बाद कितने ही लोगों को अवसर मिलेगा कि वे पर्यटकों की सेवा कर धन कमा सकें जैसे चालक (ड्राइवर), भोजनालय वाले, मार्गदर्शक (गाइड) तथा अन्य व्यापारी आदि. इसके अतिरिक्त जो सरकार को लाभ होगा पर्यटकों से मिलने वाले शुल्क से सो अलग. इसलिए जान लेना महत्त्वपूर्ण है. पढ़कर मूर्ख बन जाना अथवा अहंकार को बढ़ाना नहीं. |
Author - Architलाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II Archives
November 2020
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