तुलसीदास रचित रामचरित मानस के अनुसार जब समुद्र पार जाने की बातें हो रही थीं तो श्री राम ने विभीषण से सुझाव माँगा. विभीषण ने सुझाया कि आदरसहित पहले प्रार्थना करी जाए और राम को यह उचित जान पड़ा. यह बात लक्ष्मण को अच्छी नहीं लगी. उन्होंने कहा देव देव मत कीजिये, अपने क्रोध से समुद्र को सुखा डालिये. वाल्मीकि रामायण के अनुसार हनुमान एवं सुग्रीव ने यह परामर्श विभीषण से माँगा और विभीषण ने परामर्श दिया समुद्रं राघवो राजा, शरणं गन्तुमर्हति. सुग्रीव ने जब यह वचन श्री राम को कह सुनाये तब राम को यह उचित जान पड़ा एवं उन्होंने सुग्रीव और लक्ष्मण से उनका विचार पूछा. तुलसीदास रचित रामचरित मानस में जहां लक्ष्मण को यह सुझाव नहीं जमा था वहीँ, वाल्मीकि रामायण में ऐसा कुछ नहीं बताया गया. लक्ष्मण और सुग्रीव दोनों को भी यह उत्तम लगा. तुलसीदास जी ने रामचरित मानस के सुन्दरकाण्ड में यही कहा है, "मंत्र न यह लछिमन मन भावा, राम बचन सुनी अति दुखु पावा". श्री राम के प्रार्थना करते करते तीन दिन और तीन रात बीत गए किन्तु समुद्र ने कोई विनय नहीं दिखाया. तब श्री राम ने क्रोध में भरकर लक्ष्मण से कहा कि देखो, सज्जनों कि भांति व्यवहार करने से दुष्ट लोगों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. जो दिखावा करते हैं उन्हें ही संसार पूजता है. शांत बने रहने से कोई यश नहीं मिलता. यह समुद्र मुझे असमर्थ समझ रहा है इसीलिए प्रकट नहीं होता. आज मैं इस समुद्र को ही सुखा डालूँगा जिससे सारे वानर पैदल ही इस समुद्र के पार जा सकेंगे. ऐसा कह कर श्री राम ने लक्ष्मण को धनुष बाण लाने की आज्ञा दी: चापमानय सौमित्रे शरांश्चाशिविशोपमान सागरम् शोषयिष्यामि पद्भ्यां यांतु प्लवंगमाः तदनन्तर भगवान ने जो बाण छोड़े उस से जल जीवन में हाहाकार मच गया और वातावरण भयंकर हो उठा. तुलसीदास ने इसे वाल्मीकि रामायण की अपेक्षा बहुत ही संक्षेप में बताया है. नाग, राक्षस, दानव, एवं सभी जल में रहने वाले जीव व्यथित हो उठे. प्रभु श्री राम को अत्यंत क्रोध में देखकर लक्ष्मण ने उनको रोकने का प्रयास किया किन्तु श्री राम ने समुद्र को सम्बोधित कर कहा कि वो उसमें रहने वाले समस्त जीवों को मार डालेंगे और समुद्र को सुखा डालेंगे. श्री राम ने एक अमोघ बाण निकाला जिसे धनुष पर चढ़ाते ही वातावरण और भयावह हो उठा.
तब समुद्र स्वयं देहरूप में समुद्र के जल में से निकल आया और हाथ जोड़ कर सहायता करने को तैयार हो गया. हरीणाम् तरणे राम, करिष्यामि यथा स्थलम्. वानरों के पार उतरने को मैं स्थल प्रदान करूंगा. इस से पहले उसने विनयपूर्ण वचन क्यों नहीं बोले? प्रेम और विनय से बात करने वाले को लोग प्रायः कायर समझने की भूल कर बैठते हैं. रामधारी सिंह दिनकर जी कि यह पंक्तियाँ हमने बचपन में पढ़ी थी और मुझे बड़ी ही प्रिय हैं: तीन दिवस तक पंथ मांगते, रघुपति सिंधु किनारे बैठे पढ़ते रहे छंद, अनुनय के प्यारे प्यारे उत्तर में जब एक नाद भी उठा नहीं सागर से उठी अधीर धधक पौरुष की आग राम के शर से सिंधु देह धर, त्राहि त्राहि करता आ गिरा शरण में चरण पूज, दासता ग्रहण की, बंधा मूढ़ बंधन में |
Author - Architलाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II Archives
November 2020
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