संत ने बालक को देखा बालक ने देखा संत को नयनों से जब नयन मिले जा पहुँचे दोनों अनंत को बिन बोले की बात हो गयी तब दोनों शब्दों पर आये बाबा ने अपने दुखड़े कुछ बालक को ही कह सुनाये बाबा बोला बालक बोलो तुम जैसा कैसे रह पाऊँ शिष्यों की माँगें अटपटी कैसे भला उन्हें निभाऊँ मुझे खिलाने में जाने क्यों उनको अपना मान लगे पर जो खा बैठा मैं ज़्यादा तो ईश्वर में ना ध्यान लगे मुझे बताओ, मुझे बचाओ कह कह कर दौड़े आते हैं भला साधना कब कर पाऊँ हर समय ही घेरे जाते हैं तुम ही समाधान ठहराओ कहता बाबा मुझे बताओ तुम जैसा कैसे रह पाऊँ बोलो सच कुछ न छुपाओ बालक बोला बाबा मेरी दशा भी तुमसे अलग नहीं मुझ पर तो भारी संकट है मेरा तो एक परिवार यही अर्थात् - बालक बोला बाबा तुम तो फक्कड़ होने ही निकले थे. कहीं भी उठ कर चल दोगे. मुझे तो इसी परिवार में रहना हैं. अतः मेरा संकट तुमसे भारी है. पहले दूध पिया करता था अब जाने क्या क्या खिलाते हैं कुछ भी कर के मोटा हो जाऊँ बस सब यही सोचते जाते हैं जाने क्या क्या बुलवाते हैं क्या क्या भय दिखलाते हैं शौच नहीं जाना हो तो भी घंटों शौचालय में बैठाते हैं मिलने जुलने वाले मेरी माँ को बाबाजी, क्या क्या पाठ पढ़ाते हैं मुझको अपने जैसा कर कर आपसे सलाह मांगने जाते हैं अंतिम दो पंक्तियों का तात्पर्य हैं कि बाबा यहाँ बालक जैसा होना चाह रहा है पर बालक जिससे कि बाबा स्वयं सलाह माँग रहा हैं उसे लोग अपने जैसा अच्छा-बुरा बना कर फिर बाबा के पास जाते हैं. |
Author - Architलाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II Archives
November 2020
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