बहुत समय से मन में था कि इस विषय पर कुछ लिखूं. आज एक परिचित के फेसबुक पृष्ठ पर यह संदेशयुक्त चित्र देखा तो सोचा आज ही इस कार्य को कर डालते हैं. कई बार बड़े बूढ़ों से भी सुनते हैं - भगवान से कुछ मांगो मत बस धन्यवाद करो.
परन्तु क्यों न मांगो भगवान से. यह बात आई कहाँ से है यह भी कहना कठिन है. मार्कण्डेय मुनि को जब यमदूत लेने आ गए तो उन्होंने ईश्वर का आभार थोड़े ही प्रकट किया. उन्होंने भगवान शिव से प्रार्थना करी कि उनके प्राणों की रक्षा करें. और भगवान शंकर आये. हनुमान चालीसा के आरम्भ में ही तुलसीदास जी कहते हैं: बुध्दिहीन तनु जानिके सुमिरौं पवनकुमार। बल बुद्धि बिद्या देहु मोहिं हरहु कलेस विकार ॥ यहाँ भी मांग ही करी गयी है. हे पवनकुमार! मुझे बल, बुद्धि और विद्या दीजिये और मेरे क्लेश और विकारों को हर लीजिए. महात्मा विभीषण द्वारा रचित स्तोत्र में भी उन्होंने प्रारंभ ही मांगने से किया है मम समस्तरोगप्रशमनार्थं आयुरारोग्यैश्वर्याभिवृद्धयर्थं समस्तपापक्षयार्थं सीतारामचन्द्रप्रीत्यर्थम् च हनुमद्वडवानलस्तोत्रजपमहम् करिष्ये। और उदहारण के लिए प्रातःस्मरणीय यह श्लोक देखिये: वक्रतुंड महाकाय सूर्यकोटिसमप्रभ । निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा ॥ यहां गणपति जी से यही प्रार्थना है कि मेरे कार्यों को सदा ही निर्विघ्न रूप से सम्पन्न कीजिये. यहां उनका आभार प्रकट नहीं किया जा रहा है बल्कि उनसे माँगा जा रहा है. मेरे विचार से तो ध्यान देने पर हिन्दू धर्म में अधिकांश स्तुतियों में कुछ न कुछ मांग होती दीख ही जाती है. और भक्त यदि भगवान से नहीं मांगेगा तो किस से मांगेगा. पिता यदि सामर्थ्यवान है तो पुत्र को अन्यत्र कहीं भटकने की क्या आवश्यकता है. हमारे यहाँ तो माता को भी अति सामर्थ्यवान बताया गया है. शक्तिस्वरूपा तो माता ही है. उनसे भी हम मांगते ही हैं रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषोजहि अंत में मैं यही कहूंगा कि अपने अपने विचार हैं. कोई आभार प्रकट करने तक ही सीमित रहने का प्रयास करता है. किसी का अहंकार उसे मांगने नहीं देता, किसी का स्वाभिमान नहीं मांगने देता तो किसी को कोई अज्ञात भय नहीं मांगने देता, और किसी को कोई सम्माननीय व्यक्ति ना मांगने वाली बात सिखा देता है तो वो नहीं मांगता. परन्तु ऐसा होना तो बहुत ही कठिन है कि कोई ईश्वर को मानता हो और वो उससे कुछ न मांगे. जब अपने माता पिता से कुछ मांगने में संकोच नहीं तो ईश्वर से मांगने में कैसा संकोच. |
Author - Architलाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II Archives
February 2021
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