कहते हैं जब शंकराचार्य का जन्म हुआ था तब हिन्दू धर्म घोर संकट में था. वेदों से लोग विमुख होने लगे थे. भैरव, शाक्त, वैष्णव आदि सम्प्रदायों के रूप में प्रबल हो चले थे. बौद्ध धर्म अतिलोकप्रिय हो चला था. ऐसे समय में; जिसे आज हम हिन्दू धर्म कहते हैं; उसके रक्षण का दायित्व यदि किसी ने अपने हाथों में लिया तो आदि शंकराचार्यजी ने.
३२ वर्ष के अपने छोटे से जीवनकाल में उन्होंने न जाने कितने विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित किया. काश्मीर में जा कर बौद्धों को पराजित किया तो उज्जैन में भैरवों को. नरबलि देने का चलन उन दिनों भैरव संप्रदाय में ज़ोरों पर था. शंकराचार्य ने उनसे शास्त्रार्थ किया और इस चलन पर रोक लगवाई. शंकराचार्य को माता के रुग्ण (बीमार) होने का समाचार मिला. वर्षों पहले जब संन्यास लेने का मन बनाया था तो माता को वचन दिया था, 'तेरे अंत समय में मैं तेरे पास रहूंगा और तेरा अंतिम संस्कार आदि भी मैं ही करूंगा'. वचन निभाने का समय आया तो आदि शंकराचार्य अपने गाँव की ओर चल पड़े.
उस दिन जब श्रवण राजगोपाल से मिलने आया तो मुखमण्डल चिंताग्रस्त दिखाई देता था. राजगोपाल ने कारण पूछा तो श्रवण ने बताया, "क्या बताऊँ राजगोपाल! कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनके साथ आपको न चाहते हुए भी उठना बैठना पड़ता है. आपको पता होता है कि कोई व्यक्ति आपका समाज में नाम ख़राब कर रहा है परन्तु परिस्थितियाँ कुछ ऐसी होती हैं कि आप उसका कुछ उपाय भी नहीं कर सकते. यही सब सोच कर मन बड़ा विचलित हो उठता है. क्या किया जाये समझ नहीं आता?"
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Author - Architलाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II Archives
November 2020
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