अगले दिन श्रवण राजगोपाल के घर पहुंचा तो उसकी माताजी ने बताया कि राजगोपाल ध्यान में था. श्रवण चुपचाप बैठ कर प्रतीक्षा करने लगा. आधे घंटे बाद राजगोपाल कमरे में आया तो औपचारिक बातों के बाद श्रवण ने अष्टावक्र गीता से आगे का प्रसंग कहने को कहा.
राजगोपाल बोला, "चौथे प्रकरण पर कुछ कहूँ उस से पहले मुझे एक बात का स्मरण हो आया. ज्योतिष में और हस्तरेखा शास्त्र में भी संन्यासी को सब ग्रहों से ऊपर माना है. कहते हैं ग्रहों का संन्यासी पर कोई प्रभाव नहीं होता".
श्रवण ने राजगोपाल से कहा "भाई, मैं सोच रहा था कि ऐसी ज्ञान की बातें तो बहुत लोगों ने कही होंगी परंतु ज्ञान तो सभी को प्राप्त नहीं हुआ. मैंने श्रीमद्भगवद्गीता और कितने ही पुराण पढ़े परंतु स्वयं में कितने ही विकारों को अभी भी पाता हूँ. संत कवि भी कह गए हैं - 'प्रभुजी मोरे अवगुन चित न धरो'. मैं सब समझ रहा हूँ परंतु उस स्थिति में नहीं पहुँच पाता जिसमें जनक अष्टावक्रजी के थोड़ी ही उपदेश से पहुँच गए".
श्रवण कुछ शांत सा हो चला था. राजगोपाल उसकी इस स्थिति को देख कर कुछ बोला नहीं. दोनों कुछ क्षणों तक मौन रहे फिर श्रवण बोला, "भाई राजगोपाल, आज तो तुमने भीतर कहीं चोट कर दी है. श्रीमद्भगवद्गीता का अपना महत्व है परंतु अष्टावक्र गीता भी कोई कम नहीं लगती.
मेरे अंतर में अभी भी वही बात घूम रही है कि मैं न तो कर्ता हूँ और न ही भोक्ता. मैं केवल एक आत्मा हूँ. वैसे ठीक भी है. सोचता हूँ मेरा सोचा कितनी बार हुआ और मेरे द्वारा जो भी हुआ मेरे अनुसार थोड़े ही हुआ. अष्टावक्र जी के उपदेश सुनने के उपरांत जनकजी ने क्या कहा? मित्र आगे क्या हुआ इसका वर्णन भी करो". श्रवण की अपने मित्र राजगोपाल से बड़ी बनती थी. राजगोपाल का अधिकांश समय धर्मग्रंथों के अध्ययन में व्यतीत होता था और श्रवण को धार्मिक चर्चाओं में बड़ा रस आता था. संतों के प्रवचन तो वह टेलीविज़न (दूरदर्शन) पर सुन ही लेता था परंतु संत कब बोलेंगे इस पर उसका अधिकार तो था नहीं. न उनसे कभी भेंट ही हो पाती थी. राजगोपाल से तो वह किसी भी विषय पर कभी भी चर्चा छेड़ देता था.
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Author - Architलाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II Archives
November 2020
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