श्रवण एक बार फिर राजगोपाल के सामने था. इस बार एक विचित्र सी उलझन ले कर.
श्रवण कह रहा था, "भाई राजगोपाल! पिछले कुछ दिनों से बड़ी ही विचित्र स्थिति खड़ी हो गयी है. मुझे अपने में दुनिया भर के दोष दिखाई देने लगे हैं. कभी पुरानी बातों का स्मरण हो आता है और पछतावा होता है कि मैं पहले कैसा मूर्ख था. कई बार किसी पर जो मैंने कभी क्रोध किया था वो सोच कर दुःख होने लगता है. क्या करूँ कुछ समझ नहीं आता. मेरे मन को अब तुम्हारे उत्तम वचनों से ही कुछ शांति मिल सकती है." उस दिन जब श्रवण राजगोपाल से मिलने आया तो मुखमण्डल चिंताग्रस्त दिखाई देता था. राजगोपाल ने कारण पूछा तो श्रवण ने बताया, "क्या बताऊँ राजगोपाल! कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनके साथ आपको न चाहते हुए भी उठना बैठना पड़ता है. आपको पता होता है कि कोई व्यक्ति आपका समाज में नाम ख़राब कर रहा है परन्तु परिस्थितियाँ कुछ ऐसी होती हैं कि आप उसका कुछ उपाय भी नहीं कर सकते. यही सब सोच कर मन बड़ा विचलित हो उठता है. क्या किया जाये समझ नहीं आता?"
सातवें प्रकरण को आरम्भ करते हुए राजगोपाल बोला, 'आत्मज्ञान की प्राप्ति होने पर जनक ने अनुभव किया कि वे तो अनन्तस्वरूप हैं. उनका रूप इतना विशाल है कि संसार एक नौका के समान उनके भीतर इधर से उधर तैर रहा है.
श्रवण ने राजगोपाल से अष्टावक्र गीता का छठा प्रकरण कहने को कहा तो राजगोपाल बोला, "अष्टावक्रजी ने कहा कि जैसे आकाश अनंत है, ऐसे ही मैं भी अनंत हूँ, परंतु यह जगत तो एक घड़े की तरह है".
श्रवण बोला, "आश्चर्य है! मैं अनंत हूँ परंतु यह जगत एक घड़े की तरह है. यह कैसे?" राजगोपाल बोला, "भाई, आत्मा तो अनंत है. उपनिषदों में भी यही कहा गया है. कहने को आत्मा इस शरीर में वास करती है परंतु है तो वह उस अनंत का हिस्सा ही. और अनंत का हिस्सा है अतः वह भी अनंत है परंतु भगवान की माया इतनी प्रबल है कि बार बार स्वयं को शरीर और जगत के प्रपंचों में उलझा देती है. अगले दिन श्रवण राजगोपाल के घर पहुंचा तो उसकी माताजी ने बताया कि राजगोपाल ध्यान में था. श्रवण चुपचाप बैठ कर प्रतीक्षा करने लगा. आधे घंटे बाद राजगोपाल कमरे में आया तो औपचारिक बातों के बाद श्रवण ने अष्टावक्र गीता से आगे का प्रसंग कहने को कहा.
राजगोपाल बोला, "चौथे प्रकरण पर कुछ कहूँ उस से पहले मुझे एक बात का स्मरण हो आया. ज्योतिष में और हस्तरेखा शास्त्र में भी संन्यासी को सब ग्रहों से ऊपर माना है. कहते हैं ग्रहों का संन्यासी पर कोई प्रभाव नहीं होता".
श्रवण ने राजगोपाल से कहा "भाई, मैं सोच रहा था कि ऐसी ज्ञान की बातें तो बहुत लोगों ने कही होंगी परंतु ज्ञान तो सभी को प्राप्त नहीं हुआ. मैंने श्रीमद्भगवद्गीता और कितने ही पुराण पढ़े परंतु स्वयं में कितने ही विकारों को अभी भी पाता हूँ. संत कवि भी कह गए हैं - 'प्रभुजी मोरे अवगुन चित न धरो'. मैं सब समझ रहा हूँ परंतु उस स्थिति में नहीं पहुँच पाता जिसमें जनक अष्टावक्रजी के थोड़ी ही उपदेश से पहुँच गए".
श्रवण कुछ शांत सा हो चला था. राजगोपाल उसकी इस स्थिति को देख कर कुछ बोला नहीं. दोनों कुछ क्षणों तक मौन रहे फिर श्रवण बोला, "भाई राजगोपाल, आज तो तुमने भीतर कहीं चोट कर दी है. श्रीमद्भगवद्गीता का अपना महत्व है परंतु अष्टावक्र गीता भी कोई कम नहीं लगती.
मेरे अंतर में अभी भी वही बात घूम रही है कि मैं न तो कर्ता हूँ और न ही भोक्ता. मैं केवल एक आत्मा हूँ. वैसे ठीक भी है. सोचता हूँ मेरा सोचा कितनी बार हुआ और मेरे द्वारा जो भी हुआ मेरे अनुसार थोड़े ही हुआ. अष्टावक्र जी के उपदेश सुनने के उपरांत जनकजी ने क्या कहा? मित्र आगे क्या हुआ इसका वर्णन भी करो". श्रवण की अपने मित्र राजगोपाल से बड़ी बनती थी. राजगोपाल का अधिकांश समय धर्मग्रंथों के अध्ययन में व्यतीत होता था और श्रवण को धार्मिक चर्चाओं में बड़ा रस आता था. संतों के प्रवचन तो वह टेलीविज़न (दूरदर्शन) पर सुन ही लेता था परंतु संत कब बोलेंगे इस पर उसका अधिकार तो था नहीं. न उनसे कभी भेंट ही हो पाती थी. राजगोपाल से तो वह किसी भी विषय पर कभी भी चर्चा छेड़ देता था.
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Author - Architलाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II Archives
November 2020
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