ब्रह्मा के पुत्र प्रजापति दक्ष का सभी आदर करते थे, देवता भी. जब कहीं भ्रमण को भी निकलते तो जहाँ जहाँ जो देखता आदर से प्रणाम करता और दक्ष उनका अभिवादन स्वीकार करते चले जाते थे. सम्मान जब अच्छा लगने लगे तो प्रायः अहंकार पोषित होने लगता है. एक बार सम्मान की लत लगने पर यदि कहीं सम्मान में थोड़ी भी कमी कहीं रह जाये तो अहंकार के सम्बन्धियों (क्रोध, क्षोभ आदि) के लिए मन के द्वार खुल जाते हैं. एक दिन दक्ष जब नैमिषारण्य से घूमते हुए जा रहे थे तो जो मिला उसने सर झुकाया परंतु भगवान शंकर ने कोई महत्त्व नहीं दिया. दक्ष ने इसे अपना अपमान समझा. जिस भगवान शंकर को ब्रह्माजी के कहने पर प्रजापति दक्ष ने अपनी पुत्री सती का वर चुना उसने उन्हें प्रणाम तक नहीं किया. अपमान से भरे प्रजापति दक्ष ने सबको सुनाते हुए भगवान शंकर को यज्ञों से बहिष्कृत होने का श्राप दिया. सबको सुनाना आवश्यक था. अभिमान तो दूसरों को दिखाने के लिए ही होता है. परंतु क्या वहाँ उपस्थित जन शांत रहे? नंदी को दक्ष के वचन न भाये. वे भड़क उठे परंतु भगवान शंकर ने उन्हें शांत कराया. महादेव के समझाने पर उन्हें समझ आ गया कि जो स्वयं ही यज्ञ हो उन्हें कोई यज्ञ से बाहर कर भी कैसे सकता है. नंदी का चित्त शांत हुआ और दक्ष को महादेव की ओर से अपेक्षित प्रतिक्रिया न आई. ऐसे में दक्ष वहाँ से अपने स्थान को वापस चल पड़े. कभी क्रोध करो और सामने वाले को पता भी न चले तो क्रोध करने वाले की बड़ी हास्यास्पद स्थिति हो जाती है. दक्ष का शंकर भगवान के प्रति क्रोध शांत न हुआ था. श्राप दिया किन्तु कोई प्रभाव ही नहीं. मन में नित्य एक ही बात चलती थी. "भूत प्रेतों में रहने वाले उस शंकर ने मेरा अपमान किया". सोचने लगे, "बड़ा ढीठ है". वे प्रतिशोध लेना चाहते थे और जिसका अपमान हुआ हो वह तो अपमान करने वाले का अपमान कर कर ही शांति पाता है. भगवान शंकर को नीचा दिखाए बिना दक्ष को भी कहाँ शांति मिलनी थी. अंततः उन्हें अवसर मिला. दक्ष ने एक महायज्ञ का आयोजन किया जिसमें सभी सम्मानित जनों को बुलाया. देवी देवताओं को भी बुलाया. ब्रह्मा और विष्णु भी पधारे थे परंतु महेश को आमंत्रण नहीं मिला. उस महान यज्ञ में शिवभक्त महर्षि दधीचि भी पधारे थे. अभी यज्ञ आरम्भ ही हुआ था कि उन्होंने दक्ष को सुझाया कि भले ही सभी पूज्य और सम्मानित गण उस यज्ञ में पधारे हों परंतु भगवान शंकर के बिना क्या कोई यज्ञ पूरा हो सकता है? जब सभी को बुलाया है तो शिव को भी बुलाये परंतु दक्ष से यह अनजाने में थोड़े ही हुआ था. दक्ष को दधीचि के वचन नहीं सुहाए परंतु भरी सभा में एक निर्दोष ब्राह्मण का अपमान करने का परिणाम संभवतः उन्हें ज्ञात था अतः स्वयं को संयत कर बोले - 'ऋषिवर! आप स्वयं परम तपस्वी हैं, इस यज्ञ में विष्णु, ब्रह्मा, बड़े बड़े ऋषि-मुनि, गन्धर्व, किन्नर आदि सभी तो उपस्थित हैं. ऐसे में यदि उस शम्भू को न भी बुलाया तो क्या'. दधीचि शंकर के परमभक्त थे. जहाँ भगवान का अपमान हो वहाँ भला कोई शिवभक्त क्यों रुकेगा? वे उसी क्षण वहाँ से प्रस्थान कर गए. दक्ष ने अन्य उपस्थित जनों को समझाबुझाकर यज्ञ आरम्भ करवाया. चन्द्रमा को भी यज्ञ में आने का निमंत्रण मिला था. वह जब अपनी प्रिया रोहिणी के साथ यज्ञ में भाग लेने निकला तो सती ने देख लिया. माता सती ने पता करवाया तो पता चला कि यह तो उनके पिता के यज्ञ में भाग लेने चले हैं. बड़े बड़े लोग वहाँ पधारे हैं. माता सती को बड़ा विस्मय हुआ. होता भी क्यों न? पिता सारे संसार को न्यौता दे और अपनी पुत्री को सूचना भी न दे! यह कैसे हो सकता है! मन में विचार करते करते वे भगवान शंकर के पास जा कर उनसे यज्ञ में चलने का निवेदन करने लगीं. भगवान शंकर ने उन्हें समझाया कि बिना बुलाये कहीं भी जाना ठीक नहीं परंतु माता सती तो उसे अपने पिता का घर समझकर चलने को कह रही थीं. पिता के घर जाने के लिए कैसा आमंत्रण. भगवान शंकर ने लाख समझाया परंतु माता सती नहीं मानी. अंत में यह निश्चित हुआ कि भगवान शंकर को नहीं जाना तो न जाएं परंतु दक्ष ने ऐसा क्यों किया यही जानने को माता सती अकेली ही दक्ष के यज्ञ में जाएँगी. यज्ञ में क्या होने वाला है इसका आभास भगवान शंकर को था. उनसे क्या छुपा है? उन्होंने सती को अकेले न भेजा. अपने वाहन नंदी समेत नाना प्रकार के गणों को देवी के साथ कनखल (दक्ष के यज्ञ) के लिए विदा किया. उन्हें पता था अब सती वापस आने वाली नहीं है! माता सती यज्ञ में पहुँची. एक क्षण उस भव्य आयोजन को देखा. तदनन्तर वहाँ उपस्थित जनों को देखा. फिर सबके सामने ही अपने पिता से कहने लगी कि भगवान शंकर को क्यों नहीं बुलाया. वे तो सभी के लिए पूजनीय हैं. दक्ष के मन जो शिव के प्रति भाव थे वे सती के इस वचन से फूट पड़े. उन्होंने सती को भी अपमानित किया और शंकर भगवान के प्रति भी कटु शब्द कहे. सती माता यह कैसे सहन करतीं. वे अपने पिता दक्ष और वहाँ उपस्थित देवताओं आदि को धिक्कारते हुए अग्नि में प्रवेश कर गयीं (कौन सी अग्नि में? इसमें कोई एक मत नहीं है. कहीं योगाग्नि तो कहीं यज्ञ की अग्नि का वर्णन मिलता है). यह सब इतना अचानक हुआ कि कोई कुछ समझ ही न पाया. शिव के गणों के लिए तो यह महान शोक का विषय था. शिवगणों ने हाहाकार मचा दिया. जहाँ कुछ समय पहले मङ्गलाचरण हो रहा था वहाँ अब विध्वंस हो रहा था. भगवान शंकर को नारदजी से जब इस बात का पता चला तो उन्हें अत्यंत क्रोध हुआ. क्रोध में भरकर उन्होंने जटा उखाड़कर ज्योंही पर्वत पर पटकी तो महापराक्रमी वीरभद्र और महाभयंकरी माता काली प्रकट हुए और शिवाज्ञा से दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करने चल पड़े. पहले ही शिवगणों ने कम उत्पात नहीं मचाया हुआ था कि वीरभद्र और महाकाली भी आ गए. दक्ष को कुछ सूझता नहीं था क्या करे. वह भगवान विष्णु की शरण में पहुँचा और उनसे रक्षा का निवेदन करने लगा. भगवान विष्णु ने भी दक्ष की ही निंदा की. दक्ष के लिए बड़ा ही कठिन समय था. जिस विष्णु भगवान को बुलाया था वह अपेक्षित सहायता नहीं कर रहे थे. यद्यपि देवता शिवगणों को रोकने का प्रयास कर रहे थे परंतु बात कुछ बन नहीं रही थी. तब महर्षि भृगु की सहायता से देवता किसी प्रकार एक बार को तो शिवगणों को भगाने में सफल हो गए परंतु अंततः वीरभद्र और उसकी सेना के आगे देवतागण भी यज्ञभूमि छोड़ कर अपने लोकों को चल दिए. दक्ष का सर काटकर यज्ञकुंड की अग्नि में डाल दिया गया. ब्रह्माजी के प्रतापी पुत्र दक्ष के प्राण उसके शरीर में नहीं रहे थे. दक्ष का वध करने के उपरांत वीरभद्र और महाकाली अन्य रुद्रगणों के साथ वापस भगवान शंकर की शरण में लौट आये. दक्ष ब्रह्मा के पुत्र थे. पुत्र की हत्या पिता के सामने हो जाये तो उसे शोक तो होगा ही. शोकमग्न ब्रह्माजी ने भगवान विष्णु के परामर्श पर भगवान शंकर के पास जा कर क्षमा माँगने का निश्चय किया. ब्रह्माजी कैलास पर्वत पर गए और भगवान शंकर की स्तुति की. तब भगवान शंकर यज्ञ में गए और वहाँ का हाल देखा. वे दक्ष के कुटिल कर्म के बाद भी उसे जीवित करना चाहते थे परंतु वीरभद्र ने उसका मस्तक ही अग्नि को समर्पित कर दिया था. ऐसे में दक्ष के उस धड़ पर बकरे का मस्तक स्थापित कर ही उसे भगवान शंकर ने जीवनदान दिया. |
Author - Architलाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः I येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः II Archives
February 2021
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