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विजयादशमी पर रावण द्वारा रचित स्तुति से कुछ अंश

7/10/2019

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​कदानिलिम्पनिर्झरी निकुञ्जकोटरेवसन् विमुक्तदुर्मतिः सदाशिरस्थमञ्जलिम्वहन्।
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेतिमन्त्रमुच्चरन्सदासुखीभवाम्यहं॥

रावण भगवान् शिव की स्तुति करते हुए कहता है - कब वह शुभ समय होगा जब मैं गंगाजी के किनारे किसी लतायुक्त वृक्ष की कोटर में निवास करता हुआ, बुरे विचारों से मुक्त और सदा अपने सिर पर हाथों को जोड़ कर ले जाते हुए, नैनों की चञ्चलता से मुक्त, जिनके सुन्दर ललाट पर चन्द्रमा सुशोभित है उन भगवान् शिव के "शिव" इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए सदा सुखी होऊँगा.   

कदा = कब, निलिम्पनिर्झरी = गंगाजी क्योंकि वह पहाड़ों को अपने जल से सुसज्जित करते हुआ प्रवाहित होती हैं, निकुञ्जकोटरे = लताओं वाले वृक्ष की कोटर में, वसन् = रहता हुआ, विमुक्तदुर्मतिः = बुरे विचारों से परे हुआ, सदा = हमेशा, शिरस्थं = सिर पर, अञ्जलिंवहन् = हाथों को जोड़ कर ले जाते हुए, विमुक्तलोललोचनः = नैनों की चञ्चलता से मुक्त, ललाम = सुन्दर, भाललग्नकः = भाल से लगा हुआ (ललामभाललग्नकः = चन्द्रमा क्योंकि वह सुन्दर है और शिव के भाल पर है), शिवेतिमन्त्रं = शिव यह मन्त्र, उच्चरन् = बोलता हुआ, सदासुखीभवाम्यहं = सदा सुखी होऊँगा (कहीं कहीं कदासुखीभवाम्यहं मिलता है अर्थात् कब सुखी होऊँगा)
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